पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२८४

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5 स्वामीने लिखा था बाहर हों तो अिस तरह आपका समय लेनेका पाप न हो । जेलमें आपके पास आनेकी तकदीर कहाँ ? अिसलिओ आपके साथ रहकर बातें और चर्चायें करना अिस जन्ममें तो होनेका नहीं !" अन्हें चापूने लिखा . " तुम्हें पास रहते हुओ भी वियोगका जो अनुभव हुआ है, वह मेरे सम्पर्कमें आनेवाले बहुतोंको हुआ है । भिससे जो सन्तोष मिल सके वही ले लेना चाहिये । कॅलनवेकने अक सुन्दर प्रमाण कायम किया था । सुनका खुदका अनुभव यह था कि जब पहले पहल वे मेरे सम्पर्क में आये तब रोज मिलते, जब मर्जीमें आता तब मिलते और जितना चाहते अतना समय लेते ये। खुब नजदीक आये और जब हम अक साथ रहने लगे तब साथ रहने, सोने और खाने पीने पर भी अन्हें मेरे साथ बातचीत करनेका मौका मुश्किलसे ही मिलता था। दफ्तरसे घर जाते वक्त भी कोभी न कोसी बातें करनेवाला होता ही था । भिसलिओ यह हमारा रोजमर्राका झगड़ा बन गया । भिससे अन्होंने राशिक लगाओ थी कि कोमी आपके जितना नजदीक आता है अतना ही वह दूर रहने लगता है, जैसा मुझे अनुभव होता रहा है । मैंने सुनका समर्थन किया और अितना जोड़ दिया- 'मुझे समझे हो अिसीलिये तो अितने नजदीक आये हो । अिसलिओ तुम्हें मेरा समय लेनेका अधिकार ही नहीं रहा । और जिन दूसरे लोगोंको अभी मुझे जानना बाकी है, अन्हें छोड़कर तुम्हें वक्त देनेका मुझे अधिकार नहीं है। और जिस तरहके समझौतेसे हमारो गाड़ी आगे बढ़ी। जिस तरहके अनुभवोंकी जड़में अक सत्य ही तो है न ? अक दूसरेमें घुलमिल जानेवाले साथियों के लिओ आपसमें पूछनेकी बात ही क्या हो सकती है ? यदि जैसा करने लगे तो अपने साधारण कर्तव्यमें हम अस हद तक गलती कर रहे हैं यही कहा जायगा ? और यह बात ठीक हो तो तुम्हारे जैसे साथियोंको, जो पास होने पर भी दूर जैसे रहे हैं, दुःख . माननेका कोभी कारण नहीं है।" रामकृष्ण और विवेकानन्दके बारेमें लिखा : "रामकृष्ण और विवेकानन्दके चारेमें रोलाँकी पुस्तकें ध्यान और दिलचस्पीके साथ पढ़ ली हैं। रामकृष्णके बारेमें हमेशा पूज्यभाव तो रहा ही था । अनके बारेमें पढ़ा तो थोड़ा ही था, मगर की चीजें भक्तोंसे सुनी थीं। सुन परसे भाव पैदा हुआ था । यह नहीं कह सकता कि रोला की पुस्तकें पढ़नेसे असमें वृद्धि हुी है। असलमें रोलाँकी दोनों पुस्तकें पश्चिमके लिओ लिखी गयी हैं । यह तो नहीं कहूँगा कि हमें अनसे कुछ नहीं मिल सकता । मगर मुझे बहुत कम मिला है । जिन बातोंका मुझ पर प्रभाव पड़ा या, वे भी रोलाँकी पुस्तकोंमें हैं। असके सिवा जो नी बातें हैं अनसे प्रभावों कोी वृद्धि नहीं हुी । मुझे यह नहीं लगा कि जितने भक्त रामकृष्ण थे, अतने विवेकानन्द भी थे। विवेकानन्दका प्रेम विस्तृत था, वे । २६१