-- , लिअ भेज और शराबका व्यसन न करें। यह ठीक बात है। "हमें विश्वास रखना चाहिये कि हम अनके जीवनमें प्रवेश करेंगे, अनके सुखदुःखके साथी बनेंगे और अनके बालबच्चंकि साथ जान पहचान करेंगे, तो दूसरे नियम वे अपनी अिच्छासे और जानबूझ कर पालेंगे।" वगैरा । हमें यह साबित कर देना है कि हमारा संग सत्संग है ! जिसके बाद छाराओंसे* मित्रता करनेका सुझाव है- अगर हिम्मत हो तो -मगर बृतेसे बाहर हो, तो नहीं । " अिन सबसे दोस्ती करनेके लिमे सरल शास्त्रीय नियम यह बताता है कि शून्यवत् बनकर रहना चाहिये। लेकिन शून्यवत् या तो जड़ या मूढ़ मनुष्य ही रह सकता है या पूर्ण ज्ञानी रह सकता है । दोनों से अक भी न हो असके लिये यह दुःसाध्य वस्तु है । परशरामका अक बच्चा कानपुर में बहुत बीमार था । काम छोड़कर जानेकी हिम्मत नहीं होती और फिर भी जीको चैन नहीं पड़ता । असे बापूने लिखा "तुम्हारे पास असे अच्छा करनेकी जड़ीयूटी हो या तुम्हारी हाजरी ही जड़ीबूटीका काम दे, तो जानेका धर्म पैदा हो सकता है । यानी अपने हाथमें लिझे हुओ कामसे छुटकारा मिल सके तो जैसे समय जाना चाहिये, मगर वह विमलके भाीके लिये नहीं। बल्कि जैसी हालतमें कोसी भी बीमार हो और असके लिो तुम्हारा जाना जड़ीबूटी साबित हो सके तो जाना चाहिये । असे अनुभव कर करके ही अिन्सान दिलकी कमजोरी निकाल सकता है। हम आशा रखते हैं कि अस बच्चेकी तबीयत अच्छी हो गयी होगी।" कितने ही आदमी केवल स्पर्धाके खयालसे खींच तानकर खुब काम करते चले जाते हैं, अनके लिओ ज्यादासे ज्यादा घण्टे मुकर्रर कर देने चाहिये । अिस सुचनाके विषयमें लिखा “ मैं मानता हूँ कि कामके बारेमें ज्यादासे ज्यादा घण्टोंकी हद बाँधी जा सके तो बाँध देना चाहिये । लेकिन मुझे असा लगता है कि वह हरकके लिओ अलग अलग हो सकती है । जहाँ भावना कौटुम्विक है और जहाँ हरओक आदमी अपनेको दूसरेके बराबर ही जिम्मेदार मानता है, वहाँ सबके लिअ ज्यादासे ज्यादा मर्यादा बाँध देना असम्भव तो है ही, शायद गैरवाजिब भी हो। जिसका शरीर काम देता है, जिसका मन तैयार है और जिसके पास दुसरा कोी भी अधिक सेवाका काम नहीं है, वह अपना समय संस्थाकी सेवामें हरगिज न दे, यह नियम कैसे बनाया जा सकता है ? अिसलिये मैं अितना ही सार निकाल सकता हूँ कि हमारे कामोंमें हर जगह विवेक हो, सात्विकता हो और धाँधली न हो, तो किसीको बोझा लगेगा ही नहीं। भार हमेशा तभी मालूम होता है जब हम बाहरके दबावसे कुछ करते हों। स्वेच्छा और आनन्दके साथ किये गये कामका दबाव नहीं मालूम होता । मगर • अक जरायमपेशा जाति २१८
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