पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१९८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- " असा जवाब तो बर्नार्ड शा दे सकते हैं। मेरा मतलब यह था कि जिस जवायमें कुशलताकी छाप न पड़नी चाहिये ।" वल्लममाी भड़क गये। मैंने कहा “यही देखना है कि बापू क्या लिखते हैं । " बादमें बापूने दूसरा पत्र लिखवाया: "I thank you for your letter. I well remember the visit of sir H. to this prison in 1922 or '23. He is right in his impression that I then passed my time principally in reading the D. & F. of R. E. and spinning at the wheel. It is also true that he found me quite happy. But there was no lovely orchard then, nor is there now. There were then, as there are now, some tall trees about. The rooms are bare and barred cells of an ordinary Indian prison. As cells they are well lighted and well ventilated. So long therefore as surroundings are concerned, there is no question of my memory betraying me, for at the time of writing I am exactly in the same surroundings as when Sir H. saw me. If therefore his description of them gave you the impression of a fairy tale, it was surely erroneous. Happiness after all is a mental state, and for myself being used now for more than a generation to a hard life I have learnt to detach my happiness from my surroundings." " आपके पत्रके लिये धन्यवाद । सर हेनरी सन् १९२२ या '२३में अिस जेलमें आये थे। उस समयकी मुलाकात मुझे अच्छी तरह याद है। सुनका यह खयाल सच्चा है कि अस समय मेरा वक्त खास तौर पर गिबनके रोमन साम्राज्यका अस्त और विनाश' पुस्तकके पढ़नेमें और चरखा कातनेमें बीतता था । यह भी सच है कि अन्होंने मुझे आनन्दमें देखा था। लेकिन अस समय यहाँ सुन्दर बगीचा नहीं था । आज भी नहीं है। अस समय यहाँ कुछ चे धूचे पेड़ जरूर थे और आज भी हैं । और कोठरियाँ तो जैसी वगैर किसी भी तरहको सुविधाके हिन्दुस्तानकी साधारण जेलोंमें होती हैं, वैसी ही सलाखोंवाली हैं। कोठरियोंके तौर पर वे काफी हवा और रोशनीवाली हैं। आसपासके वर्णनके मामले में तो मेरी याद मुझे धोखा नहीं दे सकती, क्योंकि यह लिखते वक्त मैं असी जगह बैठा हूँ जहाँ मुझे सर हेनरी लॉरेन्सने दस बरस पहले देखा था। अिसलिओ सुनके किये हु वर्णन परसे आप पर परियोंकी कहानीका असर पड़ा हो, तो जरूर वह वर्णन गलत है । और आनन्द तो मनकी वस्तु है मैं कितने ही वर्षांसे कठिन जीवनका आदी हो गया - १८७