" प्रहार करनेके लिअ नब मैं अपनी कलम अठाता हूँ, तब मेरे सामने अस आदमीका चित्र खड़ा हो जाता है, मानो वह मुझे कह रहा हो कि 'मुझे अपने बचावमें जो कहना है, वह तुम कहाँ जानते हो ? मेरे भी तो अपने कुछ आदर्श हैं ? मेरे बरतावसे शायद वे कुछ टैंक गये हों, तो भी क्या हुआ ? तुम अपने लिझे जैसा न्याय करते हो, वैसा ही मेरे लिअ करो।' अिसलिओ मैं आलोचना करनेवाले विशेषणोंको जहर समझकर अन्हें काममें लेनेसे बचता रहता हूँ, और मुझे जो कुछ कहना होता है वह पूरी तरह परलक्षी बनकर कहनेकी कोशिश करता हूँ। यह मेरा स्वभाव बन गया है । और मुझे कोी शक नहीं कि यह सदा ही अच्छा है । मौजूदा मामले में मुझे महसूस हुआ कि और कुछ नहीं तो यह आदमी अपनी जानकी जोखम अठाता है । जिसी बातने मेरी आलोचनाको नरम बना दिया । कुतुहलंसे जमा हुओ लोगोंके बारेमें मुझे जैसा लगा कि रोजमर्रा की घटनाओंके दुःखसे राहत पाने और. असी घटनायें देखनेकी सुत्सुकतामें ये लोग वहाँ गये थे, जहाँ अन्हें कमसे कम अक आदमी तो औरोंसे झूचा झुठनेवाला मिला ।" अिन्हें वापूने कड़ा जवाब दिया : When I said that writing about the abuse of occult powers you might have been stronger, I used the adjective precisely, in the same sensė in which I use it regarding admitted evils. I feel that whilst we should spare evil doers, we dare not be sparing in our condemnation of evil. Perfect gentleness is not inconsistent with clearest possible denunciation of what one knows to be evil, so long as that knowledge persists; and there would need to be no cause for regret later if our knowledge of the past was found to be a great error of judgement. In our endeavour to approach absolute truth we shall always have to be content with relative truth from time to time, the relative at each stage, being for us as good as the absolute. It can be easily demonstrated that there would be no progress if there was no such confidence in oneself. Of course language would be one of caution and hesitation if we had any doubt about the correctness of our position. In the case in point, the motive of the exhibitor, no matter how excellent it may be, in my, opinion would be no excuse for his exhibition, and the laziness of the spectators in not having thought out the consequences of their presence १७३ our
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