पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१६

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दिल्ली में अस्थायी संधि होनेके बाद हुआ था, असी तरह । रातको-आधी रातके वाद सब निश्चय हुआ, अविनने अिमर्सनसे बेनको तार देनेको कहा और फिर आकर बैठे । वे भी अदास और मैं भी अदास । मैंने मौन तोड़ा और कहा - 'देखिये, मैं तो बिलकुल ठंडा हो गया हूँ। और देखता हूँ कि आपकी भी जैसी ही भावना हो रही है । अिसलिओ आपसे फिर प्रार्थना करता हूँ, फिर कहता हूँ कि मैं तो लड़ाका हूँ, मुझे तो फिर भी लड़ना पड़ सकता है। आपको भी लगता हो कि कहाँ अिस समसौतेमें फंस गये, कर्मचारी कोजी समझौता चाहते नहीं, वातावरण प्रतिकूल है तो समझोता कैसा ? तो अब भी आप तार वापस ले लीजिये। अितना ही तो होगा कि येन मुझे मूर्ख कहेंगे ।' तत्र अन्होंने कहा 'नहीं, जैसी कोभी बात नहीं । आपको लड़ना हो तो लड़ लेना । मगर लड़ेंगे तो वाजिब तौर पर ही न ? नहीं, नहीं, यह तो जो समझौता हो गया सो हो गया ।' आज पत्र नहीं भेजा था तब तक लगता था कि पत्र चला जाय तो अच्छा। मगर अब पत्र चला गया, तो जैसा लगता है कि यह क्या जिम्मेदारी सिर पर ले ली है ? . . • . सम्भव है कि अछूनोंके लिभे अलग मताधिकार तो अब नहीं रहेगा। नहीं तो यह भी हो सकता है कि मुझे छोड़ दें और फिर मरने दें!" मैंने कहा “छोड़ देने पर तो अिस. अनशनसे अितनी भारी खलबली मच सकती है, जिसकी अिन लोगोंको कल्पना भी न होगी ।" बापूने कहा - "कितने - वल्लभभाभी सुबह कहने लगे. " जिस समय तो दो वर्ष पहले आजके दिन चण्डोला तालाब पार कर गये थे।" लहाजीको दो १२-३-३२ साल हो गये । बीचमें अक छोटासा विकभक --- खाली समय आ गया । वल्लभभाी बापूको हँसानेमें कसर नहीं रखते । आज पूछने लगे खजूर धोयूँ ?" बापने कहा "पन्द्रह" तो वल्लभभाभी बोले " पन्द्रह और बीसमें क्या फर्क ?" बापूने कहा "तो 'दस', क्योंकि दस और पन्द्रहमें क्या फर्क ?" मुझे कहने लगे "क्यों महादेव, कैती जेल है ? घर कोभी बिस्तर करके । सुलाता था ? कमोड धोकर रोज तड़के ही कोभी रखता था ? और टोस्टकी हुश्री रोटी, मक्खन, दूध और तरह तरहकी तरकारियाँ !” मैं तो किस तरह फूल सकता था ? मेरे सामने तो नासिकके जेलरोंके चित्र अब भी ताजा थे, और यह बात क्षणभर भी भूलने जैसी नहीं थी कि यहाँ जो कुछ है, सब बापके कारण है ? अक बात पहले दिनके संवादकी रह गयी । बापूने कहा " यहाँ तो -मुझे मंशरूकी गादी पर सुलाते हैं। तुम्हें यहाँ लायेंगे, यह मुझे आशा न थी। ९