रहा हुआ है कि पशुओंको गौतका सर कम होता है। और अंक ग्याग हदसे ज्यादा दुःख परे तो वे मरना पसन्द करेंगे । माको मुकता कि यह खयाल सपा न हो । अिसलियो या समशकर यरता मरना हमाग कि पशुको भी मनुयाकी तरह ही अपने प्राण प्यारे है। " अगर यहाँ तक सात तेरे गले भुतर्ग, ममानही टि या समाजी धर्मका बहुत विचार करनेकी वात रस नाही जाती । जहाँ लोगोंकी गति अगिकी तरफ हो, वहाँ बछरे अदाएरणका दुरुपयोग होना कम सम्भव । अहिमायनि नहीं है, वहीं पशुहिंसा तो हुआही करनी है । सिलिगे मेरे-गांकी मिसालो अग कुछ वस्ती होना सम्भव नहीं है। बस के शरीरका नाश करनेमें परिणाम पूर्ण शानकी जरूरत नहीं थी। अग बनेकी गौत दमन किसी तरह किसी भी समय आनेवाली न होती, तो जरूर यद वात मोनने लायक भी। यानी यह नियति होती कि मेरे सिवा यो शरीरका अन्त और फोगी फर ही नहीं सकता, तो वादके परिणामकी पहले से पूरी जानकारी होना बेशक जम्नी या । यहाँ तो यता और हम सब जीव रोज ही देशान्तको साथ लिये फिरत है। अिसलिये जिसमें सबसे वही बात तो जितनी ही रह जाती है कि यह देव गोरे दिन या महीने या साल ज्यादा बना रहे । यह सब यहाँ अयुक्त नहीं है, क्योंकि हेतु बिलकुल निःस्वार्थ है और बछडेका ही सुख देखनेकी बात है । और शिसलिझे यह कहा जा सकता है कि शायद कहीं कोभी विचार दोप हुआ होगा, तो भी बछरे लिये असा कोभी खराव नतीजा नहीं निकला होगा, जो किसी न किसी दिन न निकलता। अिसमें सन्देह नहीं कि जिस विचारधागमें कितनी ही प्रचलित मान्यताओंपर प्रहार है। मगर मैं मानता हूँ कि हममें यानी हिन्दूधर्ममें जितना ज्यादा कायरपन और अिसलि भितना ज्यादा आलस्य आ गया है कि अहिंसाका सूक्ष्म और मूलरूप मुला दिया गया और वह सिर्फ तुच्छ जीवदयामें समा गया है, जब कि मूलरूपमें अहिंसा अन्तरकी अत्यन्त प्रचंट भावना है और वह की तरहके परोपकारी कामोंकी शकलमें प्रगट होती है । अगर यह अक मनुष्य में भी पूरी तरह प्रगट हो, तो असका तेज सूर्यसे भी बड़ा होगा। लेकिन आज जैसा कहाँ है ?" यह पत्र लिखवाते लिखवाते तुलसीदासके दोहेके पाठके बारेमें काफी चर्चा हुी : 'पापमूल' पाठ मैंने सुना है, मगर 'देहमूल' भी मैंने सुना है। और यह पाठ मुझे ज्यादा अच्छा लगता है ।" बापूने असा कहा तो मैंने जवाप ." देहका मूल अभिमान है, अिस वेदान्ती विचारके बजाय यहाँ यह विचार होगा कि धर्मका मूल दया और पाप यानी अधर्मका मूल अभिमान है।" बापू बोले " अिसमें देहमूल अभिमानका अर्थ यों होगा कि जैसे -- में कहा १५०
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