प्रयोग बिलकुल गलत है । वीतराग पुरुष दयाका सागर होना चाहिये। और जहाँ करोड़ोंके प्रति दयाकी बात है, वहाँ यह कहना कि यह दया सात्विक होने पर भी रागरहित नहीं है या तो दयाका अर्थ न समझना है या दयाका नया अर्थ करना है । आम तौर पर हम दयाका वही अर्थ करते हैं, जिसमें. तुलसीदासजीने 'दया' शन्द भिस्तेमाल किया है। तुलसीदासजीका अर्थ नीचेके दोहमें साफ जाहिर है : दया धर्मको मूल है, पाप (देह) मूल अभिमान । " यहाँ दया सिर्फ अहिंसाके मानीमें ही है। अहिंसा अशरीरी आत्मामें ही सम्भव है । मार जब आत्मा शरीर धारण करती है, तब असमें अहिंसा दयाके रूपमें मूर्तिमान होती है । जिस दृष्टि से देखने पर बछड़े पर की गयी क्रिया शुद्ध अहिंसाका मूर्तरूप थी । आत्मा खुद कष्ट सहन करे, यह असका स्वभाव ही है । लेकिन दूसरेसे कष्ट सहन कराना आत्माके स्वभावसे अलटी बात हो गयी। अगर बछड़ेके दुःखसे मुझे होनेवाले दुःखको दूर करनेके लिओ मैंने असे मरवाया होता तो वह अहिंसा नहीं होती, मगर बछडेको होनेवाला दुःख दूर करना अहिंसा थी। अहिंसाके पेटमें ही दूसरोंको होनेवाला दुःख सहन न करनेकी बात है । अिसीसे दया पैदा होती है, वीरता प्रगट होती है और अहिंसाके साथ लगे हु जितने गुण हैं वे सभी देखनेमें आते हैं । दूसरोंको होनेवाला दुःख देखते रहना अलटा तर्क है ! और यह भी निरपवाद सत्य नहीं है कि जीवनदुःखसे मरणदुःख मनुष्यके स्वभाव ही ज्यादा है । मेरे खयालसे हमने ही मौतको जितनी भयंकर चीज बना डाली । जंगली माने जानेवाले लोगोंमें मौतका तना डर नहीं होता । लड़ाकू जातियोंमें यह डर कम ही है । और पश्चिममें तो आज असा सम्प्रदाय बन रहा है, जो दुःख पाकर जीनेसे मरना ही पसन्द करेगा। मौतका जो बहुत ज्यादा भय मान लिया गया है, यह मुझे तो अज्ञानकी या शुष्क ज्ञानकी निशानी लगती है। और जिस मान्यतासे अहिंसाने हममें और हमसे भी ज्यादा जैनोंमें वक्ररूप धारण कर लिया है। और अिससे सच्ची अहिंसाका लगभंग लोप हो गया है। क्रोधके आवेशमें आकर कुोंमें गिरनेवाली स्त्री रस्सा मिलने पर भले ही उसका सहारा ले लेगी। मगर जो किसी भी खयालसे सही, जानबूझकर कुअंमें गिरती है असे रस्सेका सहारा मिले तो भी वह झुसका : तिरस्कार ही करेगी। जापानियोंकी ‘हाराकिरी' अिसका प्रसिद्ध अदाहरण है। 'हाराकिरी' ज्ञानमूलक है या अज्ञानमूलक, यहाँ यह प्रश्न प्रस्तुत नहीं है यहाँ तो मैं अितना ही बता रहा हूँ कि अँसी बेशुमार मिसालें हैं, जब अिन्सान जीनेसे मरना ज्यादा पसन्द करता है। और पश्चिममें अपंग होकर दुःख पानेवाले जानवरोंको देह मुक्त करनेका जो रिवाज है, असके पीछे यही खयाल १४९ . -
पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१५२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।