' लज्जत दी और है। मेदनतका मजा तो पद ग्नी गाननी, जिगने यन्ना होनेवाला है।" तीन घटे खा चलाकर गय. गफ गये थे। अिमलिलो आन गतको भी परोकी मालिश कराने कराने को में अब माता ।" मगर मालिशके आधे घंटे बाद नी ताजा गरे और पागा या पारिवाया । और यह मामी नी, गहरे मिलन भरपर गा। कोत्तमने लम्या प्रत लिखकर पूछा था कि और दर्शन में शुम न्याय, तो लोग दयाकोभी- साविक ही सही-क मग ममसने अिलि मापन लिग दयागे प्रेरित कर यकी दिया करवायी थी, यह गीतगग मनुष्य नहीं करेगा वह हिंसा वीतरागता नी याती । पत्र लया था और यपिया या । अमका जवार यह था: "तेरा पत्र मिला। यहुत शुम्दा है। जनदर्शन में गुरु न्याय पर और अिस वाक्यके बारेमें जरा गलतफहमी हुजी है । 'गुद पाय का अर्थ गुद नीति और शुद्ध निर्णय हो सकता। और आम तर पर सिमन्दकी हम अिसी अर्थ समझते हैं। मगर मन भिन्त मानीमें जितेमाल नी रिया है। मेरा मतलब यह कहनेका याकि अनदानमें तक' पर ज्यादा जोर दिया जाता है। लेकिन 'तर्क से कभी कभी झुलो निर्णय हो जाते हैं और भयंकर परिणाम निकल आते हैं। जिसमें दो तर्कका नहीं है, मगर शुद्ध निर्गय पर पहुँचनेके लिझे जो जो सामग्री होनी चाहिये, वद एमेशा होती नहीं। फिर, यह भी नहीं होता कि लिखने या बोलनेवाला ग्यास शन्द खाम अर्थने अिस्तेमाल करे, तो पाने या सुननेवाला भी वही अर्थ समझे । अिसलि हदयको यानी भक्ति, श्रद्धा और अनुभवशानको आगे रखा गया है। तक केवल बुद्धिका विषय है । हृदयको जो चिज सिद्ध हो गयी है, वहाँ त यानी बुद्धि नहीं पहुँच सकती, असकी बिलकुल जरूरत नहीं है । लेकिन भिसके विपरीत किसी वातको बुद्धि मान ले, मगर वह हृदयमें न अतरे, तो त्याज्य हो जाती है । मैंने यह जो कहा है असे स्पष्ट करनेके लिझे तू अपने आप अनेक अदाहरण गह सकेगा । मैंने अभी जिस अर्थमें 'न्याय' शब्द अिस्तेमाल किया है, अस अर्थमें यह कभी साध्य वस्तु नहीं हो सकती । न्याय और निष्काम कर्मयोग दोनों साधन हैं । न्याय बुद्धिका विषय है, निष्काम कर्मयोग हृदयका है । बुद्धिसे हम निकामताको नहीं पहुँच सकते । अब तेरे प्रश्न पर आता हूँ। दया और अहिंसा अलग चीजें नहीं हैं । दया अहिंसाकी विरोधी नहीं है। और विरोधी हो तो वह दया नहीं है। दयाको अहिंसाका मूर्त स्वरूप मान सकते हैं। 'दयाहीन वीतराग पुरुष' यह } १४८
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