- डाह्याभाीको शनिवार आनेमें बड़ी अड़चन होती है। रविवारको सुपरिष्टेण्डेण्ट अक घण्टा निकालना चाहे, तो खुशीसे निकाल सकता है । अससे साफ पूछा गया 'आप रविवारको क्या करते हैं!' तो कहने लगा बैठा रहता हूँ | हफ्तेमें अक ही रोज तो मिलता है न ?' मगर डाह्याभाभीकी दिक्कत और मौजूदा स्थिति देखकर भी असके मुँहसे यह बात नहीं निकलती कि 'अच्छा, तो ये रविवारको आ जाया करें!' अजीब आदमी है । अिसमें भलमनसाहत तो है ही; मगर असकी मर्यादा है। और यह मर्यादा हुकुमतके इठे खयालकी है। अप्टन सिंकलेरका पत्र आया । असने अपनी सारी पुस्तकें भेजी हैं । अन्तमें अपनी आत्मकथा मेजी । साथ ही नोबल पुरस्कार सम्बन्धी पत्रिका भेजी है। असमें अपने बारेमें दूसरों की दी हुी रायें दी हैं और खुद भी यह प्रतिपादन करनेकी कोशिश की है कि अन्हें नोबल पुरस्कार मिलना चाहिये । कहाँ वह सिंकलेर लूी और कहाँ में अप्टन सिंकलेर ! असा भास होता है। यह सब अमरीकी ढंग है। असीको क्या दोप दिया जाय ? असा लगता है कि अमरीकामें यह सब स्वाभाविक है। बापने असे अक लकीर लिखी जो पत्रिका भेजी, वह मैं समझ नहीं सका ?" "आपने बाप्प वल्लभभाभीसे की मामलों में दिलचस्पी लिवानेकी कोशिश कर रहे हैं। कल हीरालालकी 'खगोल चित्रम्' नामकी पुस्तक ८-५-३२ आयी । असके पुढे अखड़ गये थे और असकी जिल्दके टॉके भी पुराने होकर कट गये थे। बापू वल्लभभाओसे कहने लगे "क्यों, यह आपको सौंप दूं न ? आपने जिल्दसाजका काम कभी किया है ? न किया हो तो मैं सिखा दूंगा।" फिर आज सुबह घूमते हु कहने लगे "वल्लभभाी, आपको छोटे छोटे काम करनेका शौक छुटपनसे है या यहीं पैदा हुआ ? यानी आप कारीगर थे या यही बने ?" वल्लभभाओने कहा "नहीं, जैसी कोभी बात नहीं । मगर जरूरत हो तो सूझ जाता है।" बापू बोले यह चीज जन्मजात है। दास बाबू जैसे थे कि सुप्रीमें डोरा तक नहीं पिरो सकते थे । मोतीलालजी की तरहके काम कर लेते थे।" मैंने कहा " मोतीलालजीने पानीको जंतु रहित करनेकी कल खुद घरमें ही बनायी थी। और सब बीमारोंको जंतु रहित पानी ही पिलाते थे।" आज वल्लभभाीने हीरालालकी किताबको बहुत अच्छा सीया और असके पीछे पट्टी भी लगा दी। जिसके सिवा बादाम पीलनेकी कल आयी थी, अस पर बादाम पीले । १३९
पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१४४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।