कर लेते हैं, तो असमें सारा ज्ञान आ जाता है । लेकिन यह आत्मज्ञान जुटाते जुटाते हमें कितना ही बाहरी ज्ञान भी मिल जाता है । अिसमें जो रस मिल सके असे चखनेका हमें अधिकार है। क्योंकि वह रस भी हमें आत्मज्ञानके निमित्तसे चखना है । . . . मुझे लगता है कि नरसिंहभागी गीताका अर्थ करनेमें गहरे नहीं अतरे । गीताके कृष्णका विचार करते समय हमें अतिहासिक कृष्णको उसके साथ मिला नहीं देना चाहिये । कृष्णके पास हिंसा या अहिंसाका सवाल नहीं था। अर्जुन हिंसासे कायर नहीं बना था, मगर स्वजनोंको मारनेमें असे अरुचि पैदा हो गयी थी; अिसलिमे कृष्णने असे समझाया कि कर्तव्यका पालन करने में स्वजन- परजनका भेद किया ही नहीं जा सकता । गीतायुगमें लड़ाीमें होनेवाली हिंसा की जाय या न की जाय, यह सवाल कोअी प्रामाणिक आदमी छेड़ता ही न था । असलमें यह सवाल अिस जमानेमें ही झुठा मालूम होता है। अहिंसाधर्मको तो अस वक्त सभी हिन्दू मानते थे। लेकिन कहाँ हिंसा है और कहाँ अहिंसा है, यह जैसा आज है वैसा ही अस समय भी चर्चाका विषय तो था ही । आज हम असी बहुतसी बातें करते हैं, जिन्हें हम हिंसा नहीं मानते हैं। लेकिन शायद अन्हें हमारे बादकी पीढ़ियाँ हिंसाके रूपमें समझें । जैसे हम दूध पीते हैं या अनाज पकाकर खाते हैं, असमें जीव हिंसा तो है ही। यह बिलकुल संभव है कि आनेवाली पीढ़ी अिस हिंसाको त्याज्य मान कर दूध पीना और अनाज पकाना बन्द कर दे । आज यह हिंसा करते हुओ भी हमें यह दावा करने में संकोच नहीं होता कि हम अहिंसा धर्मका पालन कर रहे हैं। ठीक अिसी तरह गीतायुगमें लड़ामी जितनी स्वाभाविक मानी जाती थी अस वक्त मनुष्यको यह नहीं लगता था कि लड़ाी करनेसे अहिंसा धर्मको कुछ भी आँच आती है। अिसलिओ गीतामें लड़ाीका दृष्टान्त लिया है, और वह मुझे बिलकुल निर्दोष लगता है । लेकिन हम सारी गीताका मनन करें और स्थितिप्रशके, ब्रह्मभूतके, भक्तके या योगीके लक्षण गीतामें देख जायें, तो हम अक ही निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि गीताके झुपदेशक या गायक श्रीकृष्ण साक्षात् अहिंसाके, अवतार थे और अर्जुनको यह अपदेश करनेमें झुनकी अहिंसाको ज़रा भी आँच नहीं आती कि तू लड़ामी कर । अितना ही नहीं, वे दूसरा अपदेश देते तो अनका ज्ञान कच्चा कहलाता और मेरी पकी राय है कि वे योगेश्वरके रूपमें या पूर्णावतारके रूपमें कभी न पूजे जाते 1 अिस विषय पर मैंने 'अनासक्तियोग' में जो लिखा है, वह विचार लेना चाहिये ।" सरदार नामक सिक्खने लिखा ~~" साधु, महात्मा, पैगम्बर, महापुरुष, रवीन्द्र और योगी अरविन्द वगैरा सब बाल रखते हैं और सभीने वालोंका महत्व माना है । आप क्यों नहीं मानते ? आप रखें तो दुनियाको . १२६
पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१३१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।