पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/८८

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उसी ख़ोजे के मेहमान बन जाइये। इसपर सादी ने उत्तर दिया—

"शेर कभी कुत्ते का जूठा नहीं खाता चाहे अपनी मांद में भूखा भले मर ही जाय।"

सादी को धर्मध्वजी-पन से बड़ी चिढ़ थी। वह प्रजा को मूर्ख और स्वार्थी मुल्लाओं के फन्दे में पड़ते देख कर जलजाते थे। उन्होंने काशी, मथुरा, वृन्दावन या प्रयाग के पाखण्डी पण्डों की पोप लीलायें देखी होतीं तो इस विषय में उनकी लेखनी अवश्य कुछ और तीव्र हो जाती। छत्रधारी और हाथी पर बैठने वाले महन्त, पाल्कियों में चंवर डुलाते चलने वाले पुजारी, घन्टों तिलक मुद्रा में समय ख़र्च करने वाले पण्डित, और राजा रईसों के दर्बार में खिलौना बननेवाले महात्मा उनकी समालोचना को कितना रोचक और हृदयग्राही बना देते? एक अवसर पर लेखक ने दो जटाधारी साधुओं को रेल गाड़ी में बैठे देखा। दोनों महात्मा एक पूरे कम्पार्टमेण्ट में बैठे हुए थे और किसी को भीतर न घुसने देते थे। मिले हुए कम्पार्टमेन्टों में इतनी भीड़ थी कि आदमियों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। एक वृद्ध यात्री खड़े खड़े थक कर धीरे से साधुओं के डब्बे में जा बैठा। फिर क्या था। साधुओं की योग्य शक्ति ने प्रचण्ड रूप धारण किया, बुड्ढे को डांट बताई और ज्योंही स्टेशन आया, स्टेशन मास्टर के पास जा