समुदाय के रीतिरिवाज रहनसहन और आचारव्यवहार को देखते थे। विद्वानोंका सत्संग करते थे और जो विचित्र बात देखते थे उन्हें अपने स्मरण-कोष में संग्रह करते जाते थे। उनकी गुलिस्ताँ और बोस्ताँ दोनों ही पुस्तकें इन्हीं अनुभवों के फल हैं। लेकिन उन्होंने विचित्र जीव-जन्तुओं, या प्रकृतिक दृष्यों, अथवा अद्भुत वस्त्राभूषणों के गपोड़ों से अपनी किताब नहीं भरीं। उनकी दृष्टि सदैव ऐसी बातों पर रहा करती थी कि जिनसे कोई सदाचार-सम्बन्धी परिणाम हो सक्ता हो, जिनसे मनोवेग और वृत्तियों का ज्ञान हो, जिनसे मनुष्य की सज्जनता या दुर्जनता प्रकट हो। सदाचरण, पारस्परिक व्यवहार, और नीतिपालन, उनके उपदेशों के विषय थे। वह ऐसी ही घटनाओं पर विचार करते थे जिनसे इस उच्च उद्देश की पूर्ति हो। यह आवश्यक नहीं था कि घटनायें अद्भुत ही हों। नहीं, वह साधारण बातों से भी ऐसे सिद्धान्त निकाल लेते थे जो साधारण बुद्धि की पहुंच से बाहर होते थे। निम्नलिखित दो चार उदाहरणों से उनकी यह सूक्ष्मदर्शिता स्पष्ट हो जायगी।
(१) मुझे 'केश' नामी द्वीप में एक सौदागर से मिलने का संयोग हुआ। उसके पास सामान से लदे हुये १५० ऊंट, और ४० ख़िदमतगार थे। उसने मुझे अपना अतिथि बनाया। सारी रात अपनी राम-कहानी सुनाता रहा कि मेरा इतना माल तुर्किस्तान में पड़ा है,