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[सत्रहवां
मल्लिकादेवी।

महाराज के गले में डालकर हँसते हँसते कहा, "यह क्या तुम्हारे मन लायक है ?"

मल्लिका को रोक कर नरेन्द्र ने कहा,-" इसका मूल्य संसारमात्र की सम्पत्ति से अधिक है। "

मल्लिका,-"तुम मुझे बहुत चाहते हो,तभी ऐसीबातें करते हो!" महाराज, इसमे सदेह क्या है ?"

यों कह कर नरेन्द्र ने मल्लिका को पुनः आलिङ्गन करके उसके कपाल का चुम्बन किया और मल्लिका लज्जित हो कर संकुचित होगई।

यह अवसर सरला ने न छोडा और मामने आकर हंसते हंसते नरेन्द्र से कहा,-"तो क्या मैं खाली हाथ घर जाऊगी?"

यह सुनकर मल्लिका बहुत लज्जित हुई, इसलिये कि सरला ने सब देख लिया । और नरेन्द्र ने हँस कर अपने हाथ से एक जडाऊ । कंगन उतार कर सरला को देदिया। इसी अवसर मे सेना मे महा कोलाहल आरंभ हुआ। सरला और मल्लिका भय से कांपने लगी, गौर नरेन्द्र आश्चर्यित होकर इधर उधर देखने लगे कि यह क्या है?

उन्होन ऊचेस्वर से कहा, "यह कैसा कोलाहल है ?"

"आपका दास,"यो कहते कहते एक बालिका का हाथ पकड़े हुए विनोद ने आकर कहा,--"आपका दास !"

नरेन्द्र,-" यह क्या, विनोद ! ऐ यह कौन बालिका है और इसे तुम कहासे लिए आते हो ?"

विनोद,-" यह अनाथा बालिका यवनों के हाथ से यातना भोग रही थी, दैवसयोग से उसी और से हम भी आपका पत्र पाकर आपके दर्शनार्थ आरहे। उसी बन में दस्यु के हाथ से इसकी रक्षा की।"

नरेन्द्र,-" तुमने बहुत ही अच्छा काम किया। क्षत्रियों का यही धर्म है। अस्तु, वे,यवन कौन थे?"

विनोद,-"तुगरल के चर छोड़ कर और कौन होंगे?"

नरेन्द्र,-"इस बालिका का परिचय तुमने पाया ?"

विनोद,-" विशेष नहीं, किन्त जान पड़ता है कि यह किसी भूम्यधिकारी क्षत्रिय की कन्या है।"

किन्तु, पाठक! विनोद ने यह सरासर झूठ कहा, क्योकि वह