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परिच्छे]
(७)
वङ्गसरोजनी

देखा कि,--सामने एक बीस बाईस बरस का परम संदर योद्धा जंगी सिपाहियों की सा पोशाक पहिरे खडा है ! मुख कुंदन की तरह दमकता और राजचिन्ह को माफ झलकाए देता है । अगों के पसीने सूख चले हैं, पर तोभी अभी रास्ते की पूरी थकावट नहीं मिटी है। वह भाले को सीढ़ीपर टेककर उसी पर अपने शरीर का भार देकर खडा है । सम कपड़े लोहू के छोटों से चंदरी होरहे हैं और कई जगह तल्वार की हलकी चोट के लगने से अभीतक थोडा, थोड़ा खून बह रहा है; और जो लोहू ढलक चुका है, सो जम गया है। सामने एक ढाल, दो तल्वारें, एक खंजर और एफ पिस्तौल, परतले के साथ खोलकर सीढ़ी पर धर दो है और प्यास के चटके के कारण अपना ओठ चाट रहा है।'

यह हम सभी कह आए हैं कि वह स्त्री किवाड खोलकर सामने युधा को खड़ा देख चिहुंक उठी थी। यह कई बार युवा को नीचे से ऊपर तक आखें फाड फाड कर देखने और तरह तरह के सोच विचार करने लगी, उसने चाहा कि झट से द्वार बद कर चलदे,पर फिर युवा की प्रतिज्ञा स्मरण करके वह रुक गई।

युवा ने भी कई बार उस स्त्री को सिर से पैर तक खूब ध्यान से निरखा और मन में सोचा कि,-'हीन हो, यह हमारी अवस्था,जो कि खून खराबा होने के कारण भयानक हारही है, देखकर सहम गई है। एक तो यह पहिलेही से पुरुषों के नाम से कांपती है, तिसपर हमारे खूनी ठाठ को देखकर इसका इस तरह सुरमा था धयराना अनुचित नहीं है।'

यह सोच कर युवा ने कोमल और मीठे बचों में कहा,-"ए बड़भागिन ! बड़े अचरज की बात है कि आप हमारे फसम खाने और प्रतिज्ञा करने पर भी अभी तक इतना उरतो हैं ! यह बात सही है कि इस समय हमारे माने, वा यों समझे कि हमारे इस खूनी भेस के देखने से आप डर गई हों, पर नहीं, यह भापका भ्रम है। वह असल क्षत्री कभी नहीं है, जो मुख से एक बार प्रतिज्ञा करके प्राण रहते पलट जाय । इसलिये अब अपने चित्त से डर को दूर कर जलदी जल दीजिए।"

“अरे चीन्हा, चीरहा, महाराज ! ऐ ! ठीक! (रुक कर उन्हीं की सी- इतना कहते कहते यह स्त्रो रुक गई