पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/८५

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परिच्छेद]
(८३)
वङ्गसरोजिनी।

सोलहवां परिच्छेद, मपूव मिलन । "भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम् " (नीतिविवेक) जनी घोर कष्णवर्ण परिच्छद परिधान किए ससार र में कृष्णाभिसारिका की भांति नत्य करती थी । बन में रात्रि के समागम से क्रमशः निस्तब्धताका विराट RAMRI रूप बढ़ताही जाता था । कभी कभी निशाचर पशुपक्षियों के कर्कश शब्द से शाति भङ्ग होती थी, पर वह दृश्य क्षण भर मे अदृश्य होजाता था । उस समय घोर बन में एक अर्द्धमृत बालिका को वेष्टन करके पाच चार व्यक्ति बैठे क्रमशः उस पालिका को अश्लील शब्दो से मृयमाण कर रहे थे। एक ने कहा,-"दिलरुया! अब भी क्या तुम हमारे हाथ से निकल भागोगी ? बहुत दिनों में हमलोगों ने तुम्हें अपने दाम में फंसाया है। दिलरुबा ! अब दिल खोलकर हंसो,बोलो और खुशियां मनाओ!" ___ यह सुन बालिकाने रोदन करते करते ऊर्ध्वमुख करके करुणा- पूर्वक कहा,-" दयामय ! परमपिता! पितृमातृविहीना गनाथ बालिका की दस्यु के हाथ से ऐसी दुर्दशा होरही है, और तुम्हें विदित नहीं है । देव | तुम क्या शयन करते हो ! हा! तुम्हें छोड़ कर कौन इस विपद से मेरा उद्धार करैगा? नाथ! मुझे इतना भी अवसर नहीं मिलता कि किसी प्रकार आत्मघात करके ही अपने सतीत्व की रक्षा करूं।" ___ यों कहते कहते वह रोदन करने लगी और एक दुर्वत्त ने उसका चरण स्पर्श करके कहा,-" नाज़नी ! क्यों नखरे करती हो! तुम बादशाह की बेगम बनाई जाओगी।" ___पालिका,-" तुम मेरे पिता के तुल्य हो, मुझ अभागिनी को छोड़ दो। मैं तुम्हारी कन्या हूँ।" __दस्य ,-"तुम मेरी बीवी हो! घयराती क्यों हो? नव्वाचसाहय, जो आजकल बङ्गाल के बादशाह हैं, तुम्हारे बगैर दीवाने होरहे