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[चौदहवां
मल्लिकादेवी।

महाराज,- 'इस बात की तो उससे मै भी प्रतिज्ञा कर चुकाहूं।"

बादशाह,-"सच है, वह इसी काबिल है।"

महाराज,-"तो अब माज्ञा हो तो मैं प्रस्थान करू । "

इस पर बादशाह के अनुरोध करने पर भी कार्यसाधन के लिये महाराज वहा न ठहर सके और कुछ फौज सग लेकर विदा हुए । बादशाह ने अतर-लायवी देकर उन्हें सादर पिदा किया, पर महाराज ने उसी समय शाही फ़ौज को एक ओर भेज कर स्वयं एकाकी अपने दुर्ग ओर गमन किया।

बादशाही शिविर से निकल कर महाराज नरेन्द्रसिंह दोही कोस दूर गए होगे कि उनके कानो में घोड़े के टोगो को ध्यान सुनाई दी, जिसे सुन यह जानने के लिये वहीं पर, जोकि एक घने जङ्गल का मुहाना था, ठहर गए । थोड़ी ही देर में उनके सामने घोडा कुदाता हुआ वही अज्ञातनाम अपरिचित आ पहुंचा, जिसे देख महाराज चकित होने के साथ ही अत्यंत प्रसन्न हुए और योलो-"वाह, वाह, मित्र! अपरिचित मित्र! तुम तो हमारे साथ साथ मानों छाया की तरह फिर रहे हो !"

अपरिचित- (अपनी हसी ओठो में दबा कर ) "इसलिये कि श्रीमान मेरी काया जो ठहरे !!! अस्तु, आपका बादशाह से मिलने जाना नव्याय के चरों को विदित होगया है और यह भी वे जान गए हैं कि आप बादशाही सेना को अपने साथ न लेकर अकेले इमी मार्ग से आवेंगे । अतएव आए उलटे फिरिए और शाही सेना से मिल और उसे साथ लेकर तब अपने दुर्ग की और जाइए; चांकि आगे बैरियो का गोल है।"

यो कह कर वह अपरिचित वहांसे हवा होगया और महाराज भी उधर से लौट पडे।