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परिच्छेद]
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वङ्गसरोजनी।

प्रकृत अपराधी का विशेष अनुसंधान किया, किन्तु कुछ पता न लगने से व्यर्थ किसीको दंडित करना भी अनुचित समझा। इसीमे दो वर्ष बीत गए, किन्तु कुछ भी फलसिद्धि नहीं हुई।"

बादशाह,-"आजकल उनकी जगह पर कौन है ?"

महाराज,-“जी! उपमंत्री रघुनार्थासह उस पदपर स्थित किए गए हैं।

बादशाह,-"आह ! निहायत रंजीदः फलमा आपने सुनाया ! महाराज! खुदा जानता है कि मैंने इस बात से बहुत ही सदमा पाया। ख़ैर ! मर्जी अल्लाहताला की, पर अब इन बदमाश फ़सादियों को जल्द सर करना चाहिए, वर न ये बिल्कुल सल्तनत को बर्बाद वो नेस्तोनाबूद करदेंगे।"

महाराज,-"अवश्य, किंतु तुगरलख़ा के पास सेना बहुत है, इसलिये जबतक पटने से श्रीमान् की शेष सेना भी न आजाय, तबतक सन्मुख न लड़कर कूटयुद्ध करना चाहिए।"

बादशाह,--"मैं भी यही ख़याल करता था । खैर, इस काम में अाम देने के लिये कितनी फ़ौज काफ़ी होगी ?"

महाराज,--"केवल पांच सहस्र!!! उत्तनी मैं खय संग्रह कर चुका हूं, वेही काम देंगी; किन्तु आपसे विशेष सहायता समय समय पर ली जाया करेगी।"

बादशाह,--"नही,नही,आप जितनी फ़ौज चाहें, ले सकते है।" महाराज, श्रीमान के समीप क्या नहीं है, सभी ईश्वर ने प्रदान किया है, किन्तु यदि मैं आपका पर नहीं हूं तो मेरी जो कुछ वस्तु है, सब आपकी है, और आवश्यकता होने पर वह लीजाया"

बादशाह,--" दुरुस्त है, ऐसाही होगा; मगर बिल्फ़ेल मेरी फ़ौज भी आपके हमराह रहै। पस, जिस सूरत से चाहें, उससे काम का अजाम दें, मगर आप ज़ियादह ख़तरा न उठाएं ।"

महाराज,--"आपकी कृपा के प्रताप से मङ्गल ही होगा, आप कोई शङ्का न करें।

बादशाह,--"इस वक्त आपके हमराह कितनी फ़ौजें आई हैं ?"

महाराज,-"इस समय मैं एकाकी ही उपस्थित हुआ हूं।"

यह सुन कर बादशाह आश्चर्यान्वित, और इतर सभासद ना

होकर निर्निमेप लोचनों से महाराज के मुख की ओर देखने लगे।

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न०