पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/७६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(७४)
[चौदहवां
मल्लिकादेवी।

थी; किन्तु जिस प्रकार मैंने आपको उस रहस्य से सूचित करके सावधान किया था उसी भाति मैंने किसी प्रकार बादशाह से भी मिलकर उन्हें सावधान कर दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि दुराचारी पकड़े जाकर मारे गए और बादशाह-सलामत वहांसे साफ़ बचकर अपने शिविर मे चले गए: क्योकि फिर उन्हें मापसे वहांपर मिलने की आशा नही थी, जब कि उन्होने अपने दूत के मारे जाने का वृत्तान्त अपने घरों द्वारा सुना था।"

यह एक ऐसावृत्तान्त था कि जिसे सुन महाराज अत्यत आनन्दित ओर चिम्मित हुए और उन्होने कहा,-"प्यारे, मित्र! तुम अवश्य किसी बड़ी भारी शक्ति को रखते होगे, तब तो तुम सभी जगह ठीक अवसर पर पहुच जाया करते हो! अस्त, तो क्या तमने बादशाह पर यह न प्रगट किया कि-'हमने आपके उस पत्र को, जो आपके दूत के पास था, नरेन्द्र के पास पहुंचा दिया' क्यो?"

आगतुक,--"जी, नही । इसके बतलाने की मैन कोई आवश्यकता नहीं समझो। और फिर मैं बादशाह के समुख तो नहीं गया था न; हा, किसी ढब से अपने पत्र को उनके हाथ तक अवश्य पहुंचा दिया था।"

महाराज,--"त्रिय युवक! तुम तो एक महामत्री की योग्यता रखते हो! अस्तु, अब हम क्या करें !"

आगतुक,--"श्रीमान ! यह तो आप दास को बडाई देते हैं, जो मुझसे इस विषय में सम्मति पूछते हैं । अस्तु, मेरी तो यही सम्मति है कि अब आप यहांसे सीधे उत्तर और बराबर यदि चले जाय तो दो घण्टे में यादशाही ििवर में पहुंच सकते है।"

महाराज,--"अच्छा,हम तुम्हारी सम्मति के अनुसार ऐसा ही करेगे।"

आगंतुक,--"तो यदि कोई क्षति न हो तो आप आश्व से गवतीर्ण हों। मेरे पास कुछ मेवे हैं, उन्हें खाकर जलपान करें; और तब तक मैं आपके घोड़े को मल दल कर इस योग्य कर दूं कि यह बहुत शीघ्र आपको अभिलषित स्थान पर पहुंचादे।"

महाराज,--(घोड़े से उतरते हुए )"यह महा अनुचित होगा- प्रियमित्र! कि तुमसे हम ऐसा काम लें।"

किन्तु इतने ही में उस आगतुक ने अपने घोड़े से उनर महाराज