पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/६५

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परिच्छेद]
(६३)
वङ्गसरोजनी।


तेरहवां परिच्छेद. उपदेश। "हितं मनोहारि च दुर्लभ वनः।" (भारवि) र द्ध मत्रीजी से मंत्रणा करके जिस समय महाराज व अपने उसी शयनमंदिर में पहुंचे, जिसमें कि अभी कुछ घंटे पूर्व उन्होने अपने प्रिय मंत्री विनोदसिंह के साथ बहुत कुछ मत्रणा की थी, उस समय रात आधी के ऊपर पहुंच चुकी थी और घोर निस्तब्धता चारोओर अपना स्वतत्र राज्य विस्तार किए हुई थी। ____उस शयनमंदिर में स्वर्णप्रदीप में सुगंधियुक्त तैल जल रहा था, जिसके उज्वल और स्वच्छ प्रकाश से सारा शयनमंदिर चमचमा रहा था; और वह एक बहुतही स्निग्ध सुगंधि से आमोदित हो रहा था । उस मंदिर में प्रविष्ट होकर महाराज नरेन्द्रसिंह ने बिना किसी दास को सहायता के ही अपने वस्त्र बदले और शयन करने योग्य वस्त्र पहिर कर उन्होंने पास ही सगमर्मर की चौकी पर रक्खे हुए जलपात्र में से थोडासा जल लेकर उसे पीया और फिर दो चार बीड़े पान के खाकर वे अपने पलङ्ग की ओर झुके; किन्तु उस पल पर दष्टि पड़तेही उनके मुख से एक हलकी चीख मापही आप निकल गई और उन्होंने आश्चर्य समुद्र में गोते खाते खाते बड़े भाग्रह से उस यस्तु को उठा लिया जिसे आजही बिनोद के साथ उनके वहांसे जाने के पश्चात उस अपरिचित व्यक्ति ने दीवार के एक चोरदर्वाज़े से निकल कर उस पलङ्ग पर डाल दिया था। ___ अस्तु, पाठकों की उत्कंठा को दूर करने के लिए हम खुले शब्दों में यों कह देते हैं कि वह वस्तु एक बंद लिफाफे के अति- रिक्त और कुछ न था, जिसे महाराज नरेन्द्रसिंह ने बड़े आश्चर्य और आग्रह से उठा लिया और दीपक के प्रकाश में उसके आवरण पर दृष्टि डाली, जिसपर उन्हींका नाम अङ्कित था। तदनंतर उन्होंने उस लिफ़ाफ़े को फाड़ डाला और उसके भीतर