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(५४)
[दसवां
मल्लिकादेवी।

यह यथेच्छ सर्वस्वापहरण करने लगा। इसके प्रश्रय से बङ्गाले में दस्यु, बदमाश और वेश्याओं का एकान्त प्रताप चमकने लगा। आवालवद्धवनिनाओं के हृदय विदारक आर्तनाद से सन्देश गूंज उठा। यहाँतक कि गङ्गीय स्वाधीन राजालोग भी इसके अत्याचार से बिकल होने और बार बार दिल्लीपति से प्रार्थना फरमे लगे। अन्ततोगत्वा निरुपाय होकर बादशाह गयासुद्दीन बलवन ने कई हजार सैन्यदल लेकर स्वयं तुगरल के सर्वनाश के लिये बङ्गाले पर चढ़ाई की।

दोषार तुगरल जीत चुका था, इमसे वह महा अहङ्कारग्रस्त होगया था। दिल्लीश्वर के आगमन का समाचार सुनकर वह अग्निदत्त घताहुति की भांति और भी उत्साहित होकर दस्युबंदों को अपनी सेना में भरती करके सेना की संख्या बढ़ाने और भतिशय प्रजापीडन करने लगा। इसने अपने पक्ष समर्थन के लिये बङ्गाले के प्रधान प्रधान राजाओं को भी भय, लोभ, साम,दाम,भेद, उत्पीडन आदि दिखाया था: पर कहींसे भी उचित आशामय उत्तर न मिलने से वह और भी क्षुधित व्याघ्र की न्याई अत्याचार करने में प्रवृत्त हुआ था। इसकी सेना में अधिकांश दस्युदल भरा था। अत: वे (दस्यु) यथेच्छ प्रजा का सर्वनाश करके अपनी पशुवृत्ति चरितार्थ करने में त्रुटि नहीं करते थे। तुगरलखां भी अपना कार्य लेने के डार्थ उन्हें यथेष्ट प्रश्रय दे दे कर बङ्गाले के उत्सन्न करने के लिये एक प्रकार कृतसकलप होगया था।

पाठकों को विदित होगा,कि अपने कार्यमाधन के लियेही इसने भागलपुर के महाराज को पत्र भेजा था,पर यथेच्छ उत्तर न पाने और दूत के मुख से बादशाह के दूत का आगमन वृत्तान्त सुनकर वह महा ऋद्ध हुआ और उसे मार्गही में मरवाहाला था।तदनंतर किसी प्रकार महाराज नरेन्द्रसिह के बध का उपाय अन्वेषण करने लगा। उसके गुप्तचर तो प्रथमही से घात में लगे थे, सो महाराज जय आखेट को गए थे तो इमने सुनकर गत्रि के समय उन्हे धत करवाया था, पर कुछ फल नहीं हुआ; उलटे उसीके पक्षी मारे गए, इससे तुगरल और भी उत्साहित होकर प्राणपण से चेष्टा करने लगा।

सरला से विदा होकर प्रातःकाल महाराज बादशाह से मिलने के लिये पुनः यात्री हुए थे, जिसका वृत्तान्त पाठक जान चुके हैं।