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परिच्छेद]
(४७)
वङ्गसरोजनी।

अपरिचित,--"एक प्रकार, बात ऐसीही है !"

नरेन्द्र,--"तो तुम्हे हम मित्र समझे या शत्रु ?"

अपरिचित,-"जैमा श्रीमान के चित्त में आवे वैसा समझे।"

यों कह वह सिर झुकाकर चलने लगा, तब उसे रोक कर

नरेन्द्र ने कहा,--"भई! तुम्हारी मातें आश्चर्य से भरी हुई हैं ! अस्तु,इस समय हम तुमसे यह जानना चाहते हैं कि क्या तुम हमें यह पतला सकते हो कि बादशाह का शिविर इस समय कहां पर अवस्थित है?"

अपरिचित,--"यह तो मुझे विदित नहीं है कि इस समय बादशाह की सेना कहा छावनी डाले हुई है, किन्तु इतना मैं अवश्य जानता हूं कि बादशाह-सलामत कुछ लोगों के साथ यहासे थोडी दूर पर उस पहाड़ी किले में मौजूद हैं, जो 'मातामहल' के नाम से विख्यात है।"

नरेन्द्र,--"अस्तु, तुम्हारी बातों पर हम विश्वास करते हैं और तुम्हें अपना मित्र समझते हैं, तथा इस उपकार के बदले में तुम्हें कुछ पारितोषिक भी दिया चाहते हैं।"

"इसकी कोई आवश्यकता नही है,श्रीमान्!"इतना कहकर वह अपरिचित व्यक्ति तुरन्त वहां से चला गया और उसके जाने पर नरेन्द्र ने विनाद से कहा,-"प्रिय मत्रिवर ! यह कैसा गोरखधधा है,कुछ समझ नही पड़ता! क्या यह भी नव्वाब की एक चालाकी है!!!"

विनोद,--'कदाचित ऐसी ही बात हो! किन्तु उस अपरिचित की बातें ऐसी स्वच्छ थी कि उन पर हदय अविश्वास करना नहीं चाहता; और इसका एक प्रयल प्रमाण यह भी है कि इस लिफ़ाफ़े की मुहर ठीक है और इस समय के पहिले यह खोला नही गया था।"

इसके बाद सेनापति गोविन्दसिह ने वहीं पहुंचकर अभिवादन किया गोर कहा,--'श्रीमान् ! बादशाह के आने के वृत्तान्त की जांच के लिये जोदूत यहांसे भेजे गए थे, उन में से दो अमो लौटकर आए हैं। उनकी ज़बानी यह समाचार मिला कि बादशाही सेना पटने से कूच कर चुकी है और बादशाह-सलामत कतिपय अनुचरों के साथ गुप्तरीति से उस पहाड पर मोतीमहल'नामक किले में आकर ठहरे हैं।"

गोविन्दसिंह की बातों से नरेन्द्र और विनोद के जी से, उस अपरिचित व्यक्ति के ऊपरजो कुछ सदेह था, दूर होगया,और नरेन्द्र ने गोविंदसिंह से कहा,--"देखो, अब तुम लड़ाई की तैयारी शीघता से