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(४६)
[आठवां
मल्लिकादेवी।

होते, पर आलोचना का भार अभी कई कारणो से हम छाड़ते हैं।"

इसके अनतर मन्त्री विनोदसिह ने उस दूत से कहा,--"आए कृपाकर यही फर्श पर बैठे और अपने मुख का आवरण दूर करके यह बतलावें कि बादशाह सलामत ने किस स्थान पर मिलने का संकेत किया है ?

यह सुन उस नकाबपोश ने कहा,--"महाशय, बड़े खेद का विषय है कि इस बात को मैं कुछ भी नहीं जानता कि बादशाह सलामत में अपने दूत से ज़बानी कमा समाचार आपके पास भेजा था! क्योकि मैं शाही दूत नही, बरन एक अपरिचित व्यक्ति हूं और इस समय आपलोगो के सामने अपना परिचय नहीं दिया चाहता हूं। बात यह है कि बादशाह के इस ओर आने का वृत्तान्त तो नव्वाब तुगरल को पहिलेहो से ज्ञात है। इसके अतिरिक्त उसे उस दून के आने का भी समाचार मिल गया, जिसके हाथ बादशाह ने यह पत्र आपको भेजा था । सो नव्वाय ने अपने गुप्तचरों से यह वृत्तान्त सुन उस दृत की बीन रास्ते ही में मरवा डाला, किन्तु दैवात् यह पत्र मेरे - हाथ लग गया, जिसे मैंने सावधानी के साथ आपके पाम पहुंचा दिया। अब आग जो कुछ इस पत्र मे लिखा है, उसी पर संतोष करें और दूत के पेट की बात जानने के लिये व्यर्थ उत्सुक न हो; क्योंकि उसके पेट की बात उसकी जान के साथ समाप्त होगई।"

उस नकाबपोश की इस विचित्र बात ने नरेन्द्र और विनोद,- दोनो को आश्चर्यसमुद्र में डाल दिया और वे दाना एक दूसरे का मुंह देखने लगे।

कुछ देर के बाद नरेन्द्र ने उस अपरिचित व्यक्ति से कहा,- "क्या तुम बतला सकते हो कि यह पत्र नव्वाय के हस्तगत हुआ था, या नहीं ?"

अपरिचित,--"नहीं, श्रीमान ! नव्वाब तो क्या, नव्वाब के उन घातकों की द्वष्टि में भी यह पत्र नहीं पड़ा, जिन्होंने उस शाहो दून को बीच मार्ग में मारा है।"

नरेन्द्र,--"तब तो जान पड़ता है कि उस समय तुम भी वहीं उपस्थित थे?"

अपरिचित,--"जीहां, श्रीमान् ! "

नरेन्द्र,--"वो तुमभी नव्वाब के सेवको में से हो?"