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परिच्छेद]
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वङ्गसरोजनी।

आगन्तुक को देख तथा लज्जित हो हसकर बोले,-"अहा बिनोद! तुम आगए ? भई ! इस समय हम चिंता से लड रहे थे, अच्छा हुआ कि तुमने आकर उस राक्षसी से हमारी रक्षा की । वाह! हम इतने अन्यमनस्क थे कि तुम्हारा आना तक नहीं जान पड़ा। अस्तु, बैठो ! कहो, क्या समाचार है ? वृद्ध मत्री महाशय से हमारे आने के पश्चात् पपा क्या परामर्श हुआ?"

आगन्तुक का नाम बिनोदसिंह था, ये वर्तमान महाराज नरेन्द्रसिंह के वाल्यमखा और अब प्रधानमत्री भी थे। इनके पिता, जो कि प्रथम प्रधानमत्री थे, उनके अन्तर्धान होने पर इनके चचा अब मंत्रित्व को त्यागकर भगवद्भजन करते थे। उनका नाम धीरेन्द्रसिंह था। अभी महाराज नरेन्द्रसिंह ने उन्हीको लक्ष्य करके विनोदसिंह से पूछा था।

हम कभी कमी केवल नरेन्द्र वा विनोद ही कहकर लिखा करेंगे। अस्तु, नरेन्द्र ने विनोद का हाथ थाम कर सादर अपने पास बैठा लिया और विनोद ने कहा,-

"राजन् ! पठानों ने महा अत्याचार करना आरम्भ किया है। इनके उत्पात से सारा वंगदेश थर्ग उठा है। प्रजा त्राहि त्राहि करके, या तो प्राण विसर्जन करती है या मान-सभ्रम बचाने के लिए देशान्तर्गमन करत' है। प्रजा का सर्वनाश, डॉक', और अबला सतो स्त्रियों का हाहाकार सुनते सुनते छाती फट रही है। कान पहरे, और देह अवपन्न प्राय होगई है, परन्तु पापी को अवश्य दण्ड मिलेगा. अभी भी ईश्वर जागृत और धर्म जाचित हैं। दो चार दिन में देहली के बादशाह आयाही चाहते हैं।"

नरेन्द्र,-"हा ! हमें तो निश्चय प्रतीत होता है कि वद्ध मंत्री महाशय का इन्ही दुष्टों ने षड्यत्र करके सर्वनाश ( वध ) किया होगा! उसी दिन से उनको सती स्त्रो और सरलहदया बालिका का भी कुछ पता नही है । न जाने क्यों, बीरसिंह, जो हमारे यहा पहिले सेनाध्यक्ष था, उमी दिन से नवाब के यहां चला गया है। यह क्यों ? उसे किसने भडकाया? उसकी स्त्री का भी पता तभी से नहीं लगता। हा! आज यदि वद्ध मत्री होते तो और भी सहायता मिलती।"

विनोद,-"अवश्य ! किन्तु बीती बातों को जाने दो। नव्याय{{rh|(७)न०