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[अथवं
मल्लिकादेवी।

केश कपोलों पर अपूर्व छबि देते थे। कड़ी और ऊर्ध्वगोमिनी मूछे, तथा श्मश्रुरेखा मुख को अलंकृत कर रही थीं। भ्र युगल संलग्न और नेत्र आकर्णावलंबी तथा नुकीले थे। इनके देखने से विधि की शिल्प. चातुरी का पूरा परिचय मिलता था। इस समय ये एक बहुमूल्य वस्त्र धारण किए चिन्ता मे डूबे थे। इनका प्रसन्न हास्यमय मुख देखने से आशा और विषाद से मिश्रित तथा मलीन प्रतीत होता था। ऐसी छबि भी चित्त के आकर्षण करनेवाली थी। युवक एकाकी ही बैठे थे।

एक के अनंतर दूसरी, तीसरी, योही नाना प्रकार की चिंताएं आ आ कर उनका मन विलाड़ित कर रही थीं। वहां अपर व्यक्ति के न रहने से चिन्ता ने स्वतत्र होकर एकाकी उक्त युवा पर पूर्णरूप से आक्रमण करना आरंभ किया। यहां तक कि युवक की सामर्थ्य न रही कि वे चिन्ता के सग्राम को जीतकर विजयध्वजा रोपण करते! सहसा उसी प्रकोष्ठ में अपर एक युवा ने प्रवेश किया । जिन उपकरणों के रहने से मनुष्य की गणना सुंदर पुरुषों में होती है, इस युवा में उन उपादानों का कुछ भी अभाव नहीं था यदि था भी तो केवल इतनोही कि प्रथम युवक से ये इतने ही न्यून थे, जितना पूर्णिमा के चद्रमा से चतुर्दशी का। चिंताकुल युवा चितामे इस प्रकार अतिशय ' निमग्न थे कि आगतुक का आना भी उन्होंने नहीं जाना ।

उनकी यह दशा देखकर आगतुक ने कहा,-"प्रिय पयस्य!क्यों, आज इतनी चिता को अवसर देने का कारण क्या है? यदि तुमवीरवर और महाराज होकर इस प्रकार एकाएक अन्यमनस्क होकर कार्य करोगे तो इस कठिन समय में देश और राज्य, तथा प्रजा की क्या गति होगी ?"

किन्तु, वह युवा उस समय इतने चिंता के पाहुने होरहे थे कि मामो उनके कानो में कोई शब्द ही नहीं पहुंचा।यह देख आगंतुकने क्षण भर चुप रह कर उनकी अवस्था को लक्ष्य करके फिर कहा,- "वयस्य ! शान्त होवो, चिंता के बेग को रोको। विद्वानों ने चिता से चिन्ता को विशेष दग्धकारिणी कहा है । भई ! ऐसे संकट के समय में कटिबद्ध न होकर जो तुम्हीं धैर्युच्यत होगे तो कार्यभार कौन सम्हालेगा? और तुम्हे धीरज धरानेवाला ही कौन है?"

युवा का नाम नरेद्रसिंह था। आगंतुक की बातों ने उनके रोमरोम में विद्युत् बेग से प्रवेश किया। उनका ध्यान भग हुआ और वे