प्यारे!तुम तो हमारे बिना क्षणभर भो सुख का अनुभव नहीं कर सकते थे, आज क्या हुआ, जो मित्र को छोड़कर चले गए ? ऐसा कौनसा काम था ? हा! हदय विदीर्ण होता है ! क्या तुम वीरकेशरी होकर वन्यपशुओं के आहार तो नहीं हुए ? या किसी शत्रु के हाथ में पड़कर तुम कष्ट पारहे हो ? मित्र ! तुम्हारी या दशा है ! तुम कहां हो ? हमसे कौन ऐसा अपराध हुआ कि बिना कहे सुने चले गए! ऐसा तो तुम्हारा स्वभाव नहीं था!!! मित्र! कुछ समझ नहीं पड़ता कि क्या बात है ? हाय!! कैसे कुअवसर में घर से यात्रा की थी कि 'प्रथमग्रासे मक्षिकापातः' हुआ। देखें! अभी आगे अदृष्ट क्या क्या दृश्य दिखाता है !!!"
उनकामन किसी प्रकार भी शान्तिलाभ नहीं कर सका । अन्त में वे सघन तरु की छाया में,कर पर कपोल रख कर बैठ गए । उनकी आंखों से अश्रुविन्दु कपोलों पर बहकर धरती में गिरने लगा।
धीरे-धीरे सूर्यदेव लोहित कर विस्तार कर,प्राची दिशा का मुख रंजित करते हुए अपनी रंगशाला में आ उपस्थित हुए । पक्षिगण आनन्दपूर्वक निद्रादेवी को बिदाकर अपने कलरवसे दिनेश की स्तुति करते करते इधर उधर आहार के लिये ओकाश में उड़ने लगे। धन के निशाचर जीव गिरिगुहा में प्रविष्ट होकर रात्रि के श्रम को दूर करने लगे और पशुकुल का तुमुल रव तथा उनके भागने का शब्द चारों ओर प्रतिध्वनित होने लगा। यामिनी दिननाथ को देखकर लजित हो, तिमिरावगुंठन-पूर्वक अपने अतःपुर में प्रविष्ट हुई, उसका अनुचर तम भी उसके पीछे पीछे भाग गया।
मंत्री ने हताश होकर फिर चलने का उद्योग किया। उन्होंने अपना उत्तरीय उतार कर फटकारा तो उसमे से एक टुकडा काग़ज़ का गिर पड़ा; उसे देखकुतूहलाक्रांत होकर उन्होंने उठा लिया और पढ़ा। उसमें जो लिखा था, उसे पढ़कर उनका आश्चर्य द्विगुण बढ़गया, आशा निराशा एक संग मन के भीतर लड़ने लगी और चिन्ता ने इतना उपद्रव मचाया कि वे उस पुरजे कामाशय कुछ भी नहीं समझ सके।
उसमें कुछ विशेषता नहीं थी, केवल इतनाही लिखा था कि, "आप न घबराएं; महाराज जहां हैं, अच्छी तरह हैं।"
मंत्री मनही मन अतिशय चचल होकर कल्पना करने लगे,- ऐं ! यह किसने लिखकर हमारे दुपट्टे में बांध दिया ? ये फ़ारसी