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परिच्छेद]
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वङ्गसरोजनी।

"मगर एक बात और भी कहे देता हूं,वह यह कि अपने ख़जाने में से दो लाख सालाना ठगों के वास्ते ख़र्च के ज़रूर दिया करें, इसके एवज़ मे हमलोग आपके दुश्मनों से आपकी सल्तनत की वक्त व वक्त हिफाज़त किया करेंगे।"

महाराज,--"आपने किस नाम को पवित्र किया है ?"

पठान, "मेरानाम मुहम्मदक़ासिम है।मैं सूबेदार साहबका रिसाल. दार और दोस्त हूं, बल्कि उन्हीं के इशारेसे मैंने आपको यह तकलीफ़दी है। अब उम्मीद कामिल है कि आप ज़रूर मेरी गर्जकुबूल करेगे।"

महाराज,--" तो आप मूल ही में भूल करते हैं !"

कासिम,--"क्या, क्या ! मैंने क्या भूल की ?"

महाराज की आखें क्रोध से लाल होगई, मानों उनमें से रक्त टपकना चाहता था! मोष्ठ और भुजा फडकने लगी,अंगरोमांचित और कपित होने लगा, आर्य्यशोणित अतिशय उष्ण होकर शिरा शिरा में प्रधावित होकर मस्तिष्क मे प्रबल आघात करने लगा और वीरावेश से शरीर मे नए बल का संचार हुआ।

सतर्क होकर महाराज ने कहा,--"तुम्हारी सब बातें असभ्यता, निर्दयता, बंचकता, और पशुता से पूर्ण हैं । क्षत्रियवीर ऐसी कुत्सित बातों के सुनने में भी घणा करते हैं; करना तो दूर है।"

कासिम,--" तो अब तुम्हारी कज़ा आगई। "

यों कहकर ज्योही कासिम उठ कर बार किया चाहता था कि महाराज ने, जो प्रथमही से सतर्क थे, शीघ्रता से उछल कर उसका चार अपने घरछे पर रोका और पैतरा बदल कर तलवार का एक ऐसा हाथ उसकी गर्दन परमारा.कि तत्क्षण उसकी देह शिररहित होगई। उसके मुख से एक शब्द भी नहीं निकला था कि वह असार ससारसे उठाकरनरकाग्नि में डाल दिया गया। शेष जो चारों यवन स्तंभित होकर अबतक चित्र की भाँति बैठे बैठे यह तमाशा देख रहे थे, वे कासिम के भूमिसात् होतेही, क्षुधित व्याघ्र की नाई महाराज पर एक संग झपट कर आक्रमण करने लगे।

यवनों ने चिल्लाकर कहा,--"देख, काफ़िर! तुझे अभी जहन्नुम- रसीदः करता हूँ। दोज़खी कुत्ते ! ज़रा ठहर जा।"

महाराज,--"चुपरह; दुवृत्त, नरघातक, पिशाच ! तेरी मृत्य

सन्निकट है।"

(६)र०