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परिच्छेद]
(३३)
वङ्गसरोजनी।

कई घटे योंही व्यतीत हुए, पर द्वार नहीं खुला । महाराज विकल होकर चार बार जगदीश्वर के निकट उपस्थित विपद से परित्राण पाने के लिये प्रार्थना करते थे। भगवान दयालु हैं,क्या वे शुद्धहदय महाराज की कातरोक्ति पर ध्यान नहीं देगे?

महाराज ने बिकल हो, ओपही आप कहा,-"हैं ! यह फिसका कर्म है ! यह विपद क्या है, गौर इसका हेतु क्या है ? किसने किसलिये हमें रात को सोते से उठा लाकर यहां कैद कर रक्खा है ? जो हो, हमें निश्चय है कि इसमे कुछ रहस्य अवश्य है। "

महाराज ने कुछ भी न समझा । उनका चित्त इस अद्भुत व्यापार के जानने के लिये महा व्यग्र होने लगा, किन्तु उपाय क्या था? इतने ही में उस घर की छत की एक पत्थर की पटिया हट गई और उसके रास्ते से किसी अपरिचित ने एक तल्वार और एक बरछा महाराज के आगे फेंक कर धीरे से कहा,- "सावधान ! यह स्थान बड़ा विकटं है। आपको चाहिए कि यहां सावधान रहें और अपने को इस विपद से बचावें। यदि ईश्वर की दया से आप यहांसे बच कर निकल सके तो अपने घोड़े को अपने शस्त्रों के सहित इस मकान से दो सौ कदम आगे एक आम की बारी में पावेगे । बस, जब वहां आप पहुंच जायं,तब अपने को निरापद समझिएगा।"

बस,इतना कह और छत की पटिया बराबर करके वह अजनबी चला गया और महाराज उसकी बातों पर गौर करते हुए तल्वार और बरछे को सम्हाल दीवार के सहारे खड़े होगए। थोडीही देर में उस गृह का द्वार खुला, और पांच चार राक्षसाकृति सशस्त्र पठानों ने प्रवेश किया। उनका हठात् प्रवेश, और कुत्सित वेश देखकर एक बार महाराज कुछ भयभीत हुए, किन्तु क्षणभर में आत्मसंयम करके उन्होंने हृदय से भय को दूर किया, और दृढ़ता से उनकी ओर देखने लगे।

आगंतुक पठान महाराज के सन्मुख भूमि में बैठ गए। थोड़ी देर तक सबके सब चुप रहे अनन्तर उनमें से एक व्यक्ति ने मुस्कुराकर कहा,-"हमलोगों ने शिकार के वक्त जङ्गल में आपको देखकर कुछ अपनो दिली ख्वाहिश पूरी करने के लिये भापको सोते हुए यहां उठा लांना मुनासिब समझा। तो क्यों इतनी