मत्री,--"अगत्या यही करना पड़ेगा।"
महाराज,--"यह भी समय की विडंबना है; कहां राजप्रासाद, दुग्धफेननिम शैया; और कहां इस वन की भयावनी कन्दरा!"
मंत्री,'-"ह ह ह !!! किस कार्य के लिए जाते थे, और बीच में क्या उपद्रव उपस्थित हुआ!"
महाराज,--"अस्तु, प्रथम तुम शयन करो, हम द्वार पर बैठ कर पहरा देंगे।
मंत्री,--"नहीं, नहीं, प्रथम तुम्हीं शयन करो, यह हमारा धर्म नहीं है, कि हम प्रथम शयन करें।
महाराज,--"तो क्या हमारा यह धर्म है कि तुम्हें मापद में छोड़ कर हम शयन करें ?"
मत्री,--"कोई चिन्ता नहीं, प्रथम तुम शयन करो, जब हमें निद्रा आने लगेगी तो हम तुम्हें जगा देंगे।
महाराज,--"नहीं, प्रथम तुम्हीं सोचो।"
मंत्री,--"यह महा अनुचित होता है।"
महाराज,--"तो जाने दो, तुम शयन करो, न हम!!!"
अनंतर अनेक तर्क वितर्क होने पर मंत्री ने परास्त होकर प्रथम शयन करना स्वीकार किया। अश्वों को पास ही वृक्ष में बांध कर मंत्री ने शयन किया, और महाराज सन्मुख भाला रख, हाथ में नङ्गी तल्वार लेकर कंदरा के द्वार पर वीरासन से बैठ गए। हा! समय की कैसी षिवना है ! जो राजप्रासाद में स्वर्गीय सुख प्राप्त होने पर भी शान्ति लाभ नहीं कर सकते, वेही समय पड़ने पर निराहार भूशय्या पर सुखपूर्वक निद्रासेवन करते हैं ! चाहे कुछ भी हो, प्रकृत बंधु के संग मनुष्य को किसी स्थल में भी विशेष दुःख नहीं व्यापता । इस लिये महाराज इस अवस्था में भी प्रसन्नता से रात्रियापन करते थे।
निशीथ समय में चन्द्रज्योत्स्नाऔर शीतल, मंद, सुगंधपवन के लगने से महाराज पर प्रयल निद्रा ने आक्रमण किया। उनकी उस समय इतनी सत्ता नहीं थी कि मंत्री को सचेत करके शयन करते! देखते देखते दोनो मित्र निराधय पर्वतारण्य में भूशैय्या पर सो गए। जब प्रातःकाल मत्री की आंख खुली तो उन्होंने देखा कि “महाराज नहीं हैं !!! क्यों ? वे कहा गए ?