किया। सैन्यदल ने भी पीछा किया, पर वह, न पहुंच कर लाचार हो धीरे धीरे बढ़ने लगा।
क्षण काल के अनंतर महाराज ने सैन्यसमूह को वहीं मिश्राम के अर्थ आज्ञा देकर मंत्री के संग मृग का पीछा किया और प्रायः उसे लक्ष्य करके पहर भरतक वनावनान्तर चले गए।दस-बारह कोसतक जाने पर एकाएक मृगशावक गिरिदरी में प्रविष्ट होकर अंतर्धान होगया और इस अद्भुत व्यापार से बंधुद्वय भग्नहदय होकर स्तंभित हुए।
किसी कार्य को लक्ष्य करके जी-जान से श्रम करने पर भी यदि मनोरथ पूर्ण नहीं होता तो सौगुना श्रम अनुभव होकर हृदय को शिथिल कर देता है, और यदि अनन्त परिश्रम से भी कृतकार्य्यता प्राप्त होती है तो श्रम का अणुमात्र खेद नही होता; अतएव दोनों युवकों की दशा बड़ी शोचनीय होगई । उनके सुख और नेत्र लाल होगए थे, सर्वाङ्ग से प्रस्वेदकण टपकने लगे थे, मुख शुष्क और हृदय धड़कता था और श्रमवाहुल्य से प्रत्यग शिथिल और भारमात्र बोध होता था। अश्व की भी वही दशा थी, किन्तु विशेषता इतनी थी कि वह अत्यंत थक कर बारबार जीभ बाहर निकालता और मुख से फेन फेंकता था।
हताश होकर दोनों ने अश्व से उतर कर इधर उधर देख अश्व को एक जलाशय के किनारे लाकर जलपान कराया और घास चरने के लिये समीपही छोड़ दिया।
अनंतर दोनो हाथमुख प्रक्षालन करके जलपान कर कुछ स्वस्थ हुए।
महाराज,-"भाई ! आज महा विपद उपस्थित हुई। इस मृग ने बड़ा धोखा दिया !"
मंत्री,-"मित्र! इसमें आश्चर्य क्या है!यह ऐसी भयंकर जाति है कि इसने साक्षात् अवधेशराज को भी प्रतारित किया था। इन दुष्टों से जो असंख्य वीरों ने धोखा खाया होगा, इसमें आश्चर्य क्या है?"
महाराज,-"किन्तु आश्चर्य यही है, कि जान बूझकर भी लोग इसके जाल में पतित होते हैं !"
मंत्री,-"अस्तु, जो हुआ सो हुआ, अब किसी प्रकार इस वन से परित्राण पाते ही सब संशय दूर कर के निज कार्य में लगेंगे।"
महाराज, "हहह!!! किसलिये जाते थे और क्या होगया!ईश्वरेच्छा। धीरे धीरे सध्यादेवी ज्योत्स्नाभिसारिका बनकर दिखाई दी।