बंधुद्वय।
"माता मित्रं पिता चेति स्वभावात्त्रितयं हितम्।
मातुः पितुः परं मित्रं यद्वचः परमं हितम्॥"
(मित्रविलास)
मध्याह्न के समय वनस्थली के मार्ग से थोड़ा सैन्यदल चला जाता था। उसके आगे दो युवक अश्व पर आरूढ़ होकर परस्पर बातें करते करते चले जाते थे। जिनमें एक महाराज थे, दूसरे मंत्री।
एक,—"सखे! पठानों के उपद्रव से वन के मार्ग से गमन करना युक्तिसंगत हुआ।"
दूसरा,—"मैंने भी यही अनुमति दी थी। विशेष कर ग्रीष्मऋतु में सूर्योत्ताप से बचने के लिये यह मार्ग बहुत अच्छा है!"
एक,—"किन्तु जब तक हम लोग अपने लक्ष्य स्थान पर न पहुंच जायं, तब तक अपने को निर्विघ्न नहीं समझना चाहिए। आज कल पद-पद पर विपद है।"
दूसरा,—"ठीक है, पर सावधानी से एकाएक विघ्न के पाले नहीं पड़ना पड़ता।"
अनंतर दोनों घोड़ा फेंकते हुए चले जाते थे। पीछे पीछे सैन्यदल श्रेणीबद्ध चला जाता था। सेना के कोलाहल से पशुकुल प्राणभय से इधर उधर दौड़ने लगे और पक्षिशावक प्राणसंहारी ब्याधे के भय से तरुकोटरों से मुख निकाल निकाल कर उनकी ओर देखने और अपनी भयविह्वलता प्रकट करने लगे। एक प्रकार वन्यजीवों में महा हलचल उपस्थित हुई, चारों ओर अशान्ति फैल गई और कलरव से वनस्थली गूंज उठी।
इसी अवसर में एक सुन्दर मृगशावक महाराज के सन्मुख दिखाई दिया। यह हम कह आए हैं कि इन दो बन्धुओं में से एक महाराज थे, और दूसरे मंत्री।
मृगछौने को देखते ही महा मुदित होकर महाराज ने उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया और इंगित पाकर मंत्री ने भी उनका अनुसरण