पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१९

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परिच्छेद]
(१७)
वङ्गसरोजनी।

तीसरा परिच्छेद

मिलाप।

"क्क भोगमाप्नोति न भाग्यभाग् जनः ॥"

                        (सुभाषित)

णय की अद्वितीय महिमा है । संसार में जिस सहदय प्र का हृदयक्षेत्र प्रणयबीज से अंकुरित नहीं है, वह-मरुभूमि से क्या कम है! प्रणय जाति, कुल, धर्म और समाज देख कर नहीं होता । अज्ञातकुलशील व्यक्ति के परस्पर साक्षात ही से यह हदय में उदय हो आता है। इसलिये इसे चुंबक मणि से कम न समझना चाहिए। जिसने कभी आँखों से हीरा नहीं देखा है और न उसका मूल्यही जानता है, क्या एकाएक हीरा देख कर वह मोहित नहीं होता? यद्यपि उसका मूल्य और गुण वह नहीं जानता, तथापि हीरे की उज्वलता गौर शोभा अवश्य देखनेवाले के मन को आकर्षित करती है। जो सोने की नहीं जानता, वही यदि किसी के अंगों पर सुवर्ण का आभूषण देखे तो उसका मन सोने की शोभा से क्या नहीं आकृष्ट होगा? तब प्रणय क्या वस्तु है, इसे यदि कोई बाल्यावस्था में न भी जाने तो भी उपयुक्त समय आने पर उसे अवश्य जानता है। उपयोगी यस्तु के मिलन ही पर प्रणय का अकुर हृदयक्षेत्र में उतान होता है। इसे समझाना व्यर्थ है, क्योंकि प्रणय प्राकृतिक घटनाका मूल है। यह किसी की इच्छा से नहीं होता, और न किसी के मना करने से रुकता है। यह अपनी अनिवार्य गति से स्त्री-पुरुष को चलाय. मान करता है। यह कहना अयौक्तिक नहीं है कि संसार प्रणय का दास है । जगदीश्वर ही स्त्री-पुरुष के हृदयक्षेत्र में प्रणयवीज वपन करता है. जिसके द्वारा संसार का धाराप्रवाह बराबर चला जाता है। जैसे शीत के बीतने पर वसंत का उदय होतेही वृक्षगजि फल और पुष्पों से सुशोभित होती है, वैसेही दाल्यवयस के व्यतीत होते ही प्रणय का बीज मनुष्य के हदय में भाप ही आप आरोपित होता है।