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[सताईसवां
मल्लिकादेवी।

नरेन्द्र,--"प्रिये ! यह युद्ध में सन्नद्ध है, का सुशाला एफ सप्ताह तक धीरज न धरैगी ?"

मलिका,--"तुम पायुद्ध से पराङ्मुख हौ ? तब हुमने कितना धीरज धरा है?"

नरेन्द्र,--अच्छा! हम हारे, तुम्हारी ही बात रही।"

मल्लिका--" तो विनोद भैया को कब भेजोगे ? बतलाओ।"

नरेन्द्र,--"कल, या परसों।"

धीरे धीरे उषःकाल आगया । दो प्रणयी के परस्पर मिलाप में मीन घटे क्षणभर में बीत गए। पक्षियों के कलरव से दोनों का ध्यान भङ्ग हुआ और घबरा कर नरेन्द्र ने कहा,-" प्यारी ! अष 'शुभ मुहूर्त में विदा करो।

इस शब्द से मल्लिका के मर्म में कठोर आघात लगा। वह विषण्ण होकर चुप रही।

नरेन्द्र ने उसे गले लगा कर कपोल चुम्बनपूर्वक कहा,-"धैर्य धारण करो, प्यारी शीघही हम आवेंगे?"

मल्लिका,--"कब आओगे, सच सच कहो।"

नरेन्द्र,--"आज के सातवें दिन, तुगरल का सिर लेकर।"

मल्लिका कुछ और कहा चाहती थी,किंतु न कह सकी क्योंकि सहसा उस घर में सरला प्रविष्ट हुई। उसे अचानक देख कर मल्लिका लज्जा से सिमट कर दूसरे द्वार से बाहर चली गई और सग्ला ने हंस फर नरेन्द्र से कहा,-"महाराज! माप जादू जानते हैं!"

नरेन्द्र,--"यह का,सरला! तुम्हारी यह गढ़ंत बड़ी अद्धतहै!"

सरला,--"मेरी सरल हृदयासखा की आपने जादू से मोह लिया।"

नरेन्द्र,-- अच्छा, इसका उत्तर हम फिर देगे। अब सिदा करो, अतिकाल होता है।"

सरला,--"शीघ्र दर्शन होंगे म!"

इसपर, " अवश्य !" कह कर नरन्द्र ने मन वहीं छोड़, केवल भारमात्र तन लेकर वहांसे प्रस्थान किया।

पहिला भाग समाप्त