(१३४) मालिकादेवी। [छब्बीसवां . - wwwwwwwwvvvv wwmniwanamam से महाराज को उठाया और उनका मस्तक माघ्राण करके वे अपने अचल द्वारा उनका नेत्रमार्जन करने लगी। नरेन्द्र ने गद्गद कठ से कहा,-"मां! हमारा कौन सा अपराध है,जो हमसे आप इतनी रुष्ट हैं ? हाय ! आज लो इस अधम के कानों तक आपने अपना वृत्तान्त नहीं पहुंचाया! क्या हम इतने अधम और अयोग्य हैं कि शापकी सेवा सुश्रषा नहीं कर सकते थे !!!" ___ नरेन्द्र की करुणापूर्ण बातो से कमला का चित्त आई होगया, उन्होंने संतुष्टता से कहा, "वत्स नरेन्द्र ! भाज मैं यथार्थ ही पुत्रवती हुई। हा! मुझे इतनी आशा न थी कि संसार में कोई मेरा धर्मपुत्र होगा। पर आज सहसा ऐसा शब्द सुनकर जो असीम मानन्द मुझे हुमा. उसके रखने के लिये मैं अपने हदय में अवकाश नहीं पाती। बेटा ! यही कारण है कि मैने आज तक तुम्हें सूचना नहीं दी। और भो-जिस समय यह दुर्घटना उपस्थित हुई थी, उसके कुछ दिन पूर्व वृद्ध महाराजमहारानीसहित अन्तर्धान होचुके थे और तुम उस समय उद्विग्न होरहे थे!" ___ नरेन्द्र,-"मा! बड़े आश्चर्य का विषय है कि उस घटना को हुए दो वर्ष व्यतीत हुए और अभी तक आपको हमें सूचित करने का अवसर नहीं मिला!!! अवश्य आप हमसे रुष्ट होंगी!" कमला,-'नहीं, बेटा! तुमसे रुष्टता कैसी ? अस्तु जाने दो, 'गतं न शोचामि!' आज अपने ऊपर तुम्हारा निष्कपट मातृप्रेम देखकर मैं अपने भाग्य की तुलना नहीं कर सकती ! हो ! अब मुझे कोई दुःख नहीं है ! तुम्हें देख कर मेरा हृदय शीतल हुआ! फिन्तु-" नरेन्द्र,-"मां ! “किन्तु" क्या कहा ? इसका क्या हेतु है ?" कमला ने दीर्घनिश्वास लेकर कहा,-"कुछ नही !!!" नरेन्द्र,-"कुछ नहीं,-यह कैसे निश्चय हो ? अवश्य आपके मन में गोप्य बात है !" फमला,-"विशेष कुछ नहीं, केवल तुगरल का अत्याचार !!! नरेन्द्र,-"मां! हम आपके कहने के पूर्व ही, जबकि मंत्री महाशय के सर्वनाश का वृत्तान्त हमने सुना था, बादशाह से तुगरल के षध का निश्चय कर चुके हैं। अब हम उसका शीघ्रही शिरश्छेद करके अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर मंत्री महाशय के ऋण से मुक्त होंगे,और उस नराधम का छिन्न मस्तक आपके चरणों में धरकर अपने यथार्थक्षत्रियत्व का
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