(१३०) मल्लिकादेवी। [पञ्चीसवां wNAAMW.AANA~~ - wwww "हा ! क्याकरूं! मैं इन मालाओं को लेकर क्या करूंगी ?" यों कह कर वह उठी और अपनी बनाई समस्त मालाओं को खण्ड खण्ड करके उसने पुष्करिणी में प्रक्षेप कर दिया। उसने पुन: दीघनिश्वास लेकर मंद स्वर से कहना आरम्भ किया,-"इन मालाओं को लेकर मैं क्या करती ? मैं क्या इस सुख के योग्य हूं? मेरा क्या ऐसा पाटी सा भाग्य है ? वामन होकर आकाशस्थ चंद्र के धरने को हाथ पसारनी कैसी मूर्खता का काम है ? क्या वे मुझ अभागिनी को सुहागिनी बनावेंगे! क्यों वे ऐसा करेंगे? मुझमें ऐसे कौन से गुण हैं, जिससे वे मुझ पर मोहित होंगे! न सही; मेरा तन.मन तो अब उनका हो ही चुका। वे मुझे त्याग कर सकते हैं, पर मैं शत जन्म धारण करके भी उनका चरण नहीं छोड़ सकती । जब कभी अवसर आवेगा,उनके चरण पर गिर, हाथ जोड कर रोते रोते विनीत वचन से निवेदन करूगी कि,- 'नाथ! यह दासी भापही की है, इसे निज चरण की सेवा से वंचित न कीजिए । इससे विशेष कुछ भी दासी नहीं चाहती; तो इतने विनय पर भी वे क्या फर्णपात न करेंगे ? क्या वे इतने निष्ठुर हैं ! क्या वे ऐसे वज्रहदय हैं ! क्या वे इतने प्रेमशून्य हैं ! क्या वे ऐसे निर्दय हैं !!! कदापि नहीं; तब मेरी कातरोक्ति पर वे क्यों न ध्यान देंगे? हाय कय ऐसा सुदिन आवैगा ?--हाय ! पापिनी जिह्वा गल क्यों न गई ? मैंने क्यों देवमूर्ति का अविश्वास किया और उसे कटुवचन कहा ! नाथ ! दासी का दोष क्षमा करोगे? क्या इसका पार--" यो कहते कहते सुशीला की आखों से वर्षाविन्दु की नाई अश्रुजिंदु टपकने लगे। उसका फण्ठ रुद्ध और मुख विवर्ण हुआ! वह नरव क्रन्दन करने लगी! इसी अवसर में मल्लिका आगई ! सुशीला उस समय इतनी विह्वल गौर हृदय शून्य थी कि उसे मल्लिका के आने की आहट न सुनाई दी! मल्लिका ने ध्यानपूर्वक उसकी दशा के तत्व को समझा और शीघता से उसे फण्ठ लगा कर हसते हंसते कहा,-"सुशीला ! माला क्यों टूक ट्रक करके फेंक दी !.क्यों ? तू क्यों इस प्रकार व्यर्थ रोती है ? सुशीला ने निज भाव गोपन करने का उपाय न देखकर लजा
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