( १२८ ) मल्लिकादेवा। [ पश्चीसवां www पच्चीसवां परिच्छेद पुष्टप्रणय। " सामिप्राय प्रणयसरसं गृहसगूढरागम् । " (सुभाषित) saalsatarsध्या समागतप्राय थी।सूर्यदेव प्राची दिशा को अपने कर से लाल दुकूल पहिराकर शस्तमित हुआ चाहने थे। पक्षिकुल कोलाहल करते करते चराई से लौट • आकर वृक्षों पर बैठ, अपनी अपनी प्यारी से रात्रि के आने का समाचार सुना, सुख से रजनीयापन करने का परामर्श 'करते थे । सांध्य शीतल समीर सुगधि लेकर दशो दिशामो मे वितरण कर रहा था। उसी समय एक रमणीय पुष्पोद्यान में पुष्करिणी के प्रशस्त सोपान पर बैठी दी षोडशी बालाए मालाग्रथन करती थी! परस्पर हास विलास करती, एक दूसरी की ओर देख कर हसती और मालाग्रंथन करती थी ! यह हमारी परिचित हैं, अर्थात् मल्लिका और सुशीला! सुशीला ने हँसकर कहा,-'मल्लिका जीजी ! सरला कप माने के लिये कह गई है ?" मल्लिका,-"सो मैं क्या जानं ! तुझसे कह गई होगी !" सुशीला,-"हा ! मैने ही तो उसे भेजाहै !पी! ठीक है न?" मलिका,-"ठीक काहे का ? विनोद से मिलिया और क्या ! पथराती क्यों है ?" सुशीला,-"हा! हां! सुंदर हार बनाओ, जिसमे प्रियतम की हृदयहारिणी बनो ! देखना, कोमल फूलो की कठोर कली प्यारे के हृदय में न चुभा देना!!!" मल्लिका,-"देख ! सुशीला ! इतनी चचल न हो, धीरज धर; शीघ्रही तेरा प्यारे से मिलाप होगा! " सुशीला,-'हे राम! आज शीघ्रता से रात्रि क्यो नही होती !" मल्लिका मे सुशोला का गुलामी गाल चूम, हंस कर कहा,-
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