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[दूसरा
मल्लिकादेवी।

दूसरा परिच्छेद

साक्षात्कार।

"दृष्टं घेवदर्भ तस्याः कि पम किमिन्दुना।"

(कुवलयानन्द)
 

दरी ने आकर कहा,-का "महाराज! जान पडता कि अभी आपने म्नान न किया है गनण्य अस आप प्रथम नित्यकर्म से RASAROTES निश्चिन्त होइए, तब तक मैं भोजन तैयार करती हूं।"

युवक,-"तुम मुझे बार बार “ महाराज - क्यों कहती हो! भई ।तुम कौन हो और क्यों यहां रहती हो? .

संदरी,-"छिः! भय लगता है, क्या! आप बीर होकर डरते हैं!'

युवक,-"वाह ! हमारी बान का यही उत्तर है ! "

संदरी.-"न सही, पर यहां दिन को भी भय लगा रहता है, या यो समझिए कि रात्रि की अपेक्षा यहां दिनही का विशेष भय सम्भव है, अतएव कदाचित माप डरे हो ! "

युवक,-"तुम्हारी बातों में अवश्थ रहस्य भरा है और वह स्थान भी रहस्य से खाली नहीं है ! .

संदरी,-"यह ठीक है। "

युवक,-"यदि कहने से कोई क्षति न हो तो कहो।।

सुंदरी,-"क्षति है, और भय भी है, भतपय कह नहीं सकती, क्षमा करिए ।

इतना कहते कहते वह सुन्दरी वहांसे दूसरे घर में चली गई और युवक हताश होकर श्रम दूर करने और इस आश्चर्यमयो घटना के सोचने के लिये वहीं बैठ गया।

उस युवा के आश्चर्य के येही विषय थे,-मानवशून्य जमल, उसमें भग्नावशिष्ट मदिर, यह केवल दो सुन्दरियों का रहना, हमें"महाराज सम्बोधन फरमा, प्रश्न करने पर अपने! वृत्तान्त को रहस्यमय स्वीकार करके भी उत्तर न देना, या उत्तर देने में आया पोछा मारना, इत्यादि।