पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/११७

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परिच्छेद]
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वङ्गसरोजिनी।

उस दुःख से कौन बञ्चित रहा ? पितृमातृविहीना कन्या !!!

कन्या का मुख देखकर कमला ने अपना दुःख धीरे धीरे दूर किया और उसे लेकर वह श्वसुरालय चली आई थी। कमलादेवी को अभी कोई संतान नहीं हुया था, न उनकी इस विषय में प्रवल इच्छा ही थी। वह तरला की कन्या को निज कन्या से बढ़कर प्यार करती और लालन पालन करती थीं । तरला के एकमात्र स्मारक चिन्ह का नाम कमला ने 'सरला' रक्खा। सरला जब पांत्र छः वर्ष की थी, उस समय कमलादेवी को भी एक पुत्री हुई, इसका नाम मल्लिका रक्खा गया। सरला का पौरा फल गया।

मल्लिका के प्रगट होने पर भी कमला का प्रेम सरला के ऊपर उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।उसके दो घरस पीछे विमला को सुशीला हुई थी। कुछ काल के अनन्तर तीनों बालिफाए-सरला, मल्लिका और सुशीला एकत्र बाल्यलीला करती, जिससे कमला के हर्ष की सीमा नहीं रहती । देखते देखते सरला विवाह योग्य हुई।

महाराज नरेन्द्रसिंह के यहां विशेष प्रिय वीरसिंह नामक एक विख्यात सेनानायक थे। इनके स्वभाव,गुण, वीरता और बुद्धिमत्ता आदि गुणो से सभी मोहित थे। यद्यपि अभी ये पूर्ण युवावस्था ही में विराजमान थे, पर अपनी रणचातुरी और वीरता के लिये शत्रदल द्वारा भी प्रशसित होते थे। वृद्धमत्री वीरेन्द्रसिह का उन पर विशेष प्रेम था और वे भी मत्री महाशय को पिता समान मानते और आदर भक्ति करते थे।

वीरसिंह प्राय; मंत्री महाशय के घर जाते थे। उनके सम्मुख कमलादेवी निकलती थी। क्योंकि ये कमला और विमला दोनों को "मां और चाची" कहते थे। धीरे धीरे सरला से इनसे प्रेमसंचार होने लगा। सरला भी द्वादश वर्ष की हो चुकी थी और प्रणय का भाव उसके हृदय में जागरूक होचुका था । ऐसी अवस्था में प्रेमाङ्कुर के उत्पन्न होने पर उसका छिपना दुरूह था। क्रमशः यह वृत्तान्त कमला और मत्री महाशय ने पूर्णतया जान लिया।

ये दोनो परस्पर प्रेमवाण से विद्ध होचुके हैं, अतएव अब इनको एक दूसरे से छुडाना भी कठिन है 'इत्यादि विवेचना करके मत्री महाशय ने सरला का विवाह वीरसिंह के सङ्घ कर दिया। अभिलषित वस्त के प्राप्त होने से जो अनिर्वचनीय आनंद होता है,