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परिच्छेद]
(१०७)
वङ्गसरोजिनी।

बात उलटी हुई कि तुगरलखां के तीन चार दुर्ग नरेन्द्रसिह के हस्तगत होगए थे। एक प्रकार तुगरल का अधःपतन होचुका था, किन्तु बिना प्राणविसर्जन किए, क्या वह कभी चुप रह सकता था?

एक दिन संध्या के समय जलाशय के तीर महाराज नरेन्द्रसिंह, एकाकी विचरण करते थे। अनतिदूर ही उनका शिविर था, विनोद कार्य्यवशात् कहीं गए थे। अतएव एकाकी नरेन्द्रसिंह पदचालना कर रहे थे। इतनेही में एक व्यक्ति ने आकर अभिवादन किया। उसे देखकर नरेन्द्र आश्चर्य्यित हुए, पर जानकर भी अनजान की नाई वे पूछने लगे,-

नरेन्द्र,-"अहा! वीरसिंह तुम क्या जीते हो? इतने दिनों तक तुम कहां थे?"

वीरसिंह,-"महाराज दास का अपराध क्षमा हो, यह अधम आपकी सेवा के योग्य नहीं है।"

नरेन्द्र-"यह बे समय की रागिनी कैसी? अबतक तुम कहाँ थे और बिना कहे सुने क्यों चले गए थे?"

वीरसिंह,-"नाथ! मैंने घोर पाप किया है, यदि आप क्षमा न करेंगे तो मुझे कहीं शरण नहीं मिलेगी।"

नरेन्द्रसिंह,-"भई! बात तो कहो? क्या समाचार है? हम तुम्हारा बहुत अनुसंधान करते थे, पर पता नहीं लगता था।"

वीरसिंह,-"प्रभो! मैं नव्वाब के यहां हूं, यदि दास का दोष क्षमा हो तो कुछ निवेदन किया जाय।"

नरेन्द्र,-"अस्तु क्षमा किया, अब कहो हमारे यहांसे व्यर्थ कार्य छोड़ कर शत्रु के यहां तुम क्यों गए?"

वीरसिंह,-"नाथ मंत्रीजी ने जिस कन्या से मेरा विवाह कर दिया था, वह उन्हीं के घर ही रहती थी। जिस दिन-हा!-मंत्री महाशय का सर्वनाश हुआ, उसी दिन से उनकी स्त्री कन्या के सङ्ग मेरी स्त्री का भी पता नहीं था। मैंने उन लोगों का बहुत अनुसन्धान किया और नव्वाब के यहां भी उन्हें उत्तमता से खोजा, पर जब कहीं भी उनलोगों का अनुसन्धान नहीं मिला, तो मुझे अत्यन्त कष्ट हुआ और तब मैं उनके लिये निराश हो बैठा। योंही एक सप्ताह बीता था कि एक दिन जब प्रातःकाल मैं सोकर उठा, तो मुझे मेरे पलङ्ग पर एक पुरजा मिला। उसे देखते ही मेरे देवता कूंच कर गए, कलेजा बैठ गया और मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो, आपकी नौकरी