गिरिजा,-"बस, बस, लालन ! तेरी भलमन्सी आज मुझे मालूम हुई ! अब तू अभी मेरे सामने से दूर हा और आज पीछे फिर कभी तू अपना काला मुखड़ा मुझे न दिखलाइयो । "
यह सुन, ताव पेच खाफर लालन उठ खडी हुई और यों कहती हुई वहांसे चली गई कि,-"भला हरामजादी ! इस दोखी का मज़ा आजही तुझे ऐसा मिलेगा कि तू भी याद करेगी।"
लालन के जाने के दो घंटे बाद कई यवन घर मे घुस पड़े और गिरिजा को मार, सुशीला को बांध और उसे एक पालकी में बंद करके एक ओर को चल दिए । उस समय उन आततायियों के साथ लालन नहीं थी, परन्तु यह ठीक है कि यह कार्रवाई उसीके इशारे से तुगरलखा के हुक्म से को गई थी, क्योंकि लालन का यह काम था कि स्वय तो वह नव्वाब से भ्रष्टा होही चुकी थी, इसके अतिरिक्त वह नव्वाब तुगरल की प्रसन्नता के लिये भले घर की लडकियों को बहका कर नव्वाब के पास पहुंचाया करती थी, इसीसे उसे खुब गहरी आमदनी होती थी।
पाठक ! सुशीला को कैद करके यवन जिस बन में पहुंचे थे, धहीं बिनोदसिंह ने पहुंचकर सुशीला का उद्धार किया था और फिर वे उसे लेकर नरेन्द्र से जा मिले थे, और वहांसे वह मल्लिका तथा सरला के साथ गई थी।
यहांपर एक बात हम और कहकर इस परिच्छेद को समाप्त करेंगे। वह बात यह है कि अभी हम ऊपर लिग्न आए हैं कि भागलपुर आने पर गिरिजा को मल्लिका आदि के अन्तर्धान होने का कोई भयंकर जनरव सुनपड़ा था, जो अति गुप्त रीति पर लोगों में फैला हुआ था, जोकि अवश्य किसी दुष्ट की दुष्टता से फैला हुआ था। सो भी वह इस उत्तमता के साथ फैला हुआ था कि महाराज नरेन्द्रसिंह तथा उनके सच्चे मित्रों के कानों तक उस जनरव की जं तक नहीं रेंगने पाई थी। तो वह जनरव कैसा था!. यही कि,-"मानो महाराज नरेन्द्रसिंह ही ने मंत्री को मार उनकी स्त्री कन्याओं को अपने अन्तःपुर में अवरुद्ध किया है !!!"
किन्तु यह सर्वथा निंंमूलक जनरव किसी दुष्ट की दुष्टता का परिणाम था, यह बात हम भागे चल कर प्रगट करेंगे।