गिरिजा के परोस में लालन नाम की एक कुलटा रहती थी, जिसने अपने कुलगौरव और सतीत्व का नाश करके दुगचारी तुगरल की कृपा संचय की थी। यद्यपि लालन ऐसे चालचलन की थी, किन्तु बराबर आने जाने और मेलजोल बढ़ने, तथा उसकी चालचलन के रहस्य को न जानने के कारण सुशीला को उसके साथ स्नेह होगया था। और वह (लालन) सुशीला के सारे वत्तांत को जान और उस वत्तांत को नव्वाय पर प्रगट कर उसे नव्वाब की अंकशायनी बनाने का उद्योग करने लगी थी।
'एक दिन मध्याह्न के समय, जब गिरिजा भोजन आदि से निवृत्त होकर वाल्मीकि रामायण लेबैठी और उसे पढ़कर सुशीला को उसका अर्थ समझाने लगी थी, इतनेही में वहां लालन आगई।
इधर उधर की बहुमसी बातों के होने पर सुशीला की ओर मुस्कुराहट के साथ देखकर लालन ने गिरिजा से कहा, "क्यों जी! बूढो मा! सुशीला तो बहुत स्यानी होगई, इसलिये भय इसका व्याह क्यो नहीं करतीं."
गिरिजा,-"लालन ! सुशीला का मुझे पूरा ध्यान है, किन्तु क्या करूं, जबतक इसके योग्य अच्छा घर-बर न मिले, विचारी लड़की को कुए में कैसे डाल दूं?"
लालन,-"ठीक है, देवेन्द्रसिह की कन्या के योग्य ही वर मिलना चाहिए; किन्तु एक बात है।
गिरिजा,-"क्या, बात क्या है ? "
लालन,-'यही कि यदि तुम सुशीला को मुझे देदो तो मैं सभी दसहजार रुपए तुम्हें हूँ।"
लालन की इस बेढगी बात से गिरिजा और सुशीला,-दोनो अत्यंत जल उठीं; और गिरिजा ने बडे क्रोध से कहा,-"लालन! यह बात यदि भाज कोई कुलटा या वेश्या कहती तो मुझे उतना आश्चर्य न होता, जितना कि तुम्हारे मुंह से ऐसी बात के सुनने से हुआ।"
लालन वास्तव में कैसी थी, यह बात न ती गिरिजा को ही मालूम थी और न सुशीला को अतएव वह गिरिजा की बात से जल उठी और बोली, "ना, दस हज़ार रुपए से बढ़कर सुशीला की इज्जत है ? "