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[अठारहवां
मल्लिकादेवी।

किया । राघवेंद्रसिंह को अपनी दो कन्याओं के अतिरिक्त और कोई संतति न थी, अतएव उनके मरने पर उनकी सारी सम्पत्ति आधे आध कमला और पिमला को मिल गई।

वीरेद्रसिंह के छोटे भाई धीरेंद्रसिंह थे। उनकी पत्नी अपने एकमात्र पुत्र को फमला की गोद में डाल परलोकवासिनी हुई थीं। तब से फिर धीरेन्द्रसिंह ने पुनः अपनी विवाह न किया और अपने पुत्र विनोद को फमला ही के अर्पण किया।यहांतक कि फिर वे विनोद को कभी अपना पुत्र न कहते और यदि कोई पूछता तो यही उत्तर देते कि,-'यह हमारी भौजाई के ही पुण्य का फल है, अर्थात उन्हीं को पुत्र है।' इसी लिये हमने भी बिनोद को वीरेन्द्रसिंह का भतीजा ही लिखा है, न कि पुत्र।

बहुत काल व्यतीत होने पर भी कमला को कोई पुत्र न हुआ। हां, एक कन्या अवश्य हुई, जिसका नाम मल्लिका है और जो हमारे उपन्यास की प्रधान नायिका है।

मुंगेर के ज़िमीदार देवेन्द्रसिंह की पत्नी अपनी एकमात्र पुत्री सुशीला को,जो मल्लिका से दो यरस छोटी थी, छोड कर परलोक सिधारीं । उसीके थोड़े ही दिनों पीछे देवेंद्रसिंह भी परलोकवासी हुए और उनकी ज़िमीदारी को जब दुराचारी तुगरल ने अपने एक मुसलमान मुसाहब को देदिया और सुशीला को पकड़ना चाहा तो उसे गिरिजा नाम की धात्री मुंगेर से लेकर भागलपुर भाग आई।

गिरिजा ने सोचा था कि,-'सुशीला को उसकी मौसी कमला के पास पहुंचा दें; किंतु भागलपुर आने पर जब उसने कमला, उसके पति और उसकी पुत्री (मल्लिका) के अन्तर्धान होने का वृत्तांत सुना, जोकि लोगों में अतिगुप्त, किन्तु भयानक रीतिपर फैला हुआ था तो वह सुशीला को धीरेन्द्रया विनोद के अधीन न कर सकी और उसे लेकर वह स्वयं भागलपुर के पास एक गांव में रहने लगी। सुशीला को लेकर भागने के समय गिरिजा कुछ रत्नादि अपने साथ लाई थी, उसीसे दोनों का एक प्रकार से कालक्षेप होता था।

गिरिजा क्षत्रियकन्यां थी, वह विधवा तथा वृद्धा थी और उसने सुशीला को जन्म से पाला था। जब वह गांव में, जिसका नाम बेलगांव था, रहने लगी तो उसके साथ एक परम सुन्दरी कन्या को देख लोग आपस में कानाफूसी करने लगे।