'चाहती कि कोई उसका उपासक हिन्दुत्व या हिन्दुस्तानी पने को प्यार करे क्योंकि ये दोनों वस्तु उसकी वेध लक्ष्य हैं-इन्हीं दोनों के शिकार को वे यहाँ आई हैं। यह मत समझना-तुम्हारा लाल विपत्ति में है-यह विपत्ति नहीं है कष्ट है-विपत्तियाँ अभागों पर पड़ती हैं- परन्तु कष्ट प्रत्येक कर्मठ पुरुष के मार्ग में आते हैं जो कर्तव्य के गम्भीर सागर में मान का मोती पाने की होस में कष्ट की पर्वतकार तरंगों पर पदाघात करते हुये ॐ ची छाती करके समुद्र के घोर गर्जन की ताल पर समुद्र की गम्भीर छाती को चीर कर अग्रसर होते हैं- वीर नर वही हैं-तुम्हारा लाल यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे लिये लज्जा की बात थी। वह देखो उन कष्टों से खिलवाड़ करता हुआ वह सुन्दर युवा किस मस्ती से गा रहा है- हो ! हो ! यह क्या ? देखो वे वृद्ध पुरुष अपनी अवस्था का कुछ भी ख्याल न करके अपने पुत्र के गान को सुन र--अपनी चक्की छोड़ उन्मत्त की तरह नाच रहे हैं। प्रेम और गर्व से उनका महान् मस्तक अनन्त आकाश की ओर उठ गया है। देखो वह भगवान् से कुछ कह रहे हैं । मगर हैं ! यह क्या ? उस पिशाच मूर्ति--सिपाही ने अपने विशाल लठ को ऊँचा उठाकर क्रोध से दाँत पीसकर--विकट स्वर में क्या कहा ? उन्हें फटकार दिया ? हाँ उन्हीं को-- कर-
पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/९७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।