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चौथी बार छट आज हम स्वाधीन भारत के आशामय दिनों में अपनी तपस्या के दिनों की गर्म सांसों को याद कर रहे हैं। इस छोटी सी पुस्तक में जो उद्गार समय २ पर आत्मा की वेदना से पटाते निकले थे उनका न जाने उस काल में सामयिक पत्रों में कितनी बार कहाँ २ उल्लेख्न हुआ था। स्वदेश खूनी दिवाली, चित्तौर के किले मे, भाभी, जवाहर--आशा के तार खास तौर पर अपने २ समय पर हज़ार हजार पत्रों में छप कर लाखों आँखों से आंसुओं की धार बहा चुके हैं। आज हम गर्व से गर्दन ऊँची करके हसते हुए अपनी परिचित पीड़ाओं के इन उद्गारों को पढ़ने का पाठकों को अवसर देते हैं। ज्ञान धाम दिल्ली शहादरा तग २६६४६ चतुरसेन