. (५६) पंद्रह हजार रुपए हाथों में लिए फिरती है। और बिना गवाह- प्रमाण मुझ अपरिचित को सोंप रही है, मानो रही अखबारों का गट्ठर है। मैंने कहा-"ठहरिए, रकम को इस भाँति रखना ठीक नहीं।" उसने लापरवाही से कहा- मैं लौट कर ले लँगी, अभी तो आप रख लीजिए।" जिस. लहजे में उसने कहा- -मैं टालटूल न कर सका । काठ की पुतली की भाँति नोटों का बडल हाथ में लिए विमूढ़ बना खड़ा रहा। टैक्सी आई, और वह लपककर उसमें बैठ गई। एक क्षीण मुस्किराहट उसके मुख पर आई। उसने कहा-"एक बात के लिए क्षमा कीजिएगा ! मैंने रेल में आपको 'तुम' कहा था। आवश्यकता-वश ही यह अनुचित घनिष्ठता का वाक्य निकल गया था। वह मानो और भी जोर से मुस्करा पड़ी, और उसकी सुन्दर मोहक धवल दंत-पंक्ति की एक रेखा आँखों में चौंध लगा गई दूसरे ही क्षण मोटर आँखों से ओझल हो गई। तीन दिन बीत गए । न वह आई, न कुछ समाचार मिला । तीनों दिन मैं एकटक उसकी बाट देखता रहा। न सोया, न खाया न कुछ किया। कब बिवाह हुश्रा और कब क्या हुआ ? मुझे कुछ
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