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( ४६ ) से दोनों छीन ले गई। मैंने पूरियाँ फेंक दी, और. हा हा कार करता गंगा की ओर दौड़ा, मित्रों ने पकड़ कर पूछा-क्या हुवा मैं सीढ़ियों पर बैठ कर रोने लगा । ठीक सात महीने प्रथम-- इसी घाट पर इसी तरह जी भर कर रो गया था। अन्तर केवल इतना था-उस दिन एक महाभाग स्त्रीरत्न के लिए रोया था और आज अपने गुलाम देश नामों की जन्म अभागिनी लाचार कन्याओं के लिए। उस चिरसहचर घाट पर क्या अब फिर बचपन के आनन्द, किलोल और हास्य की संभावना हो सकती है ?