) ( २५ नायक ने नम्रता पूर्वक जवाब दिया--"यह हमारे हत्या सम्बन्धी षड्यन्त्रों का विरोधी था। हमें उस पर सरकारी मुखविर होने का सन्देह था। मैं कुछ कहने योग्य न रहा। नायक ने वैसी ही गम्भीरता से कहा "नवीन प्रधान की हैसि. यत से तुम यथेच्छ एक पुरुस्कार मांग सकते हो।" मैंने कहा--मुझे मेरे बचन फेर दो, मुझे मेरी प्रतिज्ञाओं से मुक्त करो, मैं उसी के समुदाय का हूँ। तुम लोगों में नङ्गी छाती पर तलवार के घाव खाने की मर्दानगी न हो तो तुम अपने को देश भक्त कहने में संकोच करो। तुम्हारी इन कायर हत्याओं को मैं घृणा करता हूँ। मैं हत्यारों का साथी- सलाही और मित्र नहीं रह सकता-तुम तेरहवीं कुर्सी को जला दो। अब मैं रो उठा। नायक को क्रोध न आया। बारहों प्रधान पत्थर की मूर्ति की तरह बैठे रहे । नायक ने उसी गम्भीर स्वर में कहा "तुम्हारे इन शब्दों की सजा मौत है। पर नियमानुसार तुम्हें क्षमा पुरस्कार में दी जाती है। मैं उठ कर चला गया। देश भर में घूमा, कहीं ठहरा नहीं । भूख प्यास, विश्राम और शान्ति की इच्छा ही मर गयी दीखती है । बस अब वही पत्र मेरे नेत्र और हृदय की रोशनी
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