( २४ ) समझो मैं तुम्हें गोली मारता हूँ।" मेरी आँखों में वही कच्चे दूध के समान स्वच्छ आँखें मिला कर उसने कहा "मारो।" एक क्षण भर भी विलम्ब करने से मैं कर्तव्य विमुख हो जाता ? पल पल में साहस डूब रहा था। दनादन दो शब्द गूज उठे-वह कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा। दोनों गोली छाती को पार कर गई। मैं भागा नहीं । भय से इधर उधर मैंने देखा भी नहीं। रोया भी नहीं । मैंने उसे गोद में उठाया । मुंह की धूल पोंछी । रक्त साफ किया । आँखों में इतनी ही देर में कुछ का कुछ हो गया था। देर तक के लिये बैठा रहा-जैसे मां सोते बच्चे को जागने के भय से-लिये निश्चल बैठी रहती है। फिर मैं उठा । इन्धन चुना-चिता बनाई-और जलाई। .. अन्त तक वहीं बैठा रहा। बारहों प्रधान हाजिर थे । उसी स्थान पर जाकर मैं खड़ा हुआ । नायक ने नीरव हाथ बढ़ा कर पिस्तौल माँगो। पिस्तौल दे दी। कार्य सिद्धि का संकेत सम्पूर्ण हुआ । नायक ने खड़े हो कर वैसे ही गम्भीर स्वर में कहा "तेरहवें प्रधान की कुर्सी हम तुम्हें देते हैं। मैंने कहा "तेरहवें प्रधान की हैसियत से मैं पूछता हूँ कि उसका अपराध मुझे बताया जाय ।"
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