(. २२ ) कहा “सावधान ! क्या तुम तैयार हो ?' मैं सचमुच तैयार था। मैं चौंका नहीं। आखिर मैं उसी सभा का परीक्षार्थी सभ्य था। मैंने नियमानुसार सिर झुका दिया। गीता की रक्त वर्ण रेशमी पोथी धीरे से मेज पर रख दी गई, नियम पूर्वक मैंने दोनों हाथों से उठा कर उसे सिर पर चढ़ाली। नायक ने मेरे हाथ से पुस्तक ले ली। क्षण भर सन्नाटा रहा । नायक ने एका एक उसका नाम लिया और क्षण भर में ६ नली पिस्तौल भेज पर रख दी। वह छः अक्षरों का शब्द उस पिस्तौल की छों गोलियों की तरह मस्तक में घुस गया। पर मैं कम्पित न हुआ। प्रश्न करने और कारण पूछने का निषेध था। नियम पूर्वक मैंने पिस्तौल उठा कर छाती पर रक्खी और स्थान से हटा । तत्क्षण मैंने यात्रा की । वह स्टेशन पर हाजिर था। अपने पत्र और मेरे प्रेम पर इतना भरोसा उसे था। देखते ही लिपट गया । घर गये, चार दिन रहे । वह क्या कहता है, क्या करता है। मैं देख सुन नहीं सकता था। शरीर सुन्न हो गया था- आत्मा दृढ़ थी-हृदय धड़क रहा था पर विचार स्थिर थे चौथे दिन प्रातःकाल जलपान करके हम स्टेशन पर चले । ताँगा नहीं लिया, बङ्गल में घूमते जाने का विचार था । काव्यों 1
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