( २१ ) रहे थे। एक दिन उन्मत्त प्रेम के आवेश में उसने कहा था "किसी अघद घटना से जो हम दोनों में से एक स्त्री बन जाय तो मैं तो तुमसे व्याह ही कर लू।" नायक से कई बार पूछा, क्यों तुमने मुझे उससे मित्रता करने को कहा था। वह सदा यही कहते-समय पर जानोगे। गुप्त सभा की भयंकर गम्भीरता सब लोग नहीं जान सकते । नायक मूर्तिमान भयंकर गम्भीर थे। उस दिन भोजन के बाद उसका पत्र मिला। वह मेरी पाकट में अब भी धरा है। पर किसी को दिखाऊँगा नहीं। उसे देख कर दो सांस सुख से ले लेता हूँ। आँसू बहा कर हल्का हो जाता हूँ। किसी पुराने रोगी को जैसे कोई दवाई खूराक बन जाती है मेरी वेदना को भी यह चिट्ठी खराक बन गई है। चिट्ठी पढ़ भी न पाया था । नायक ने बुलाया। मैं सामने सरल स्वभाव खड़ा हो गया। बारहों प्रधान हाजिर थे। सन्नाटा भीषण सत्य की तस्वीर खींच रहा था । मैं एक ही मिनट में गम्भीर और दृढ़ हो गया । नायक की मर्म भेदनी दृष्टि मेरै नेत्रों में गढ़ गई-जैसे तप्त लोहे के तीर आँख में घुस गये हों । मैं पलक मारना भूल गया-मानो नेत्र में आग लग गई हो। पाँच मिनट बीत गये । नायक ने गम्भीर बाणी से
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