कहा अम्मा ! वही न गङ्गा है ? अम्मा की लटे बिखर रही थीं उन्हें एक ओर उठा कर उन्हों ने कहा-यही गंगा महारानी । उन्होंने हाथ जोड़ गद् गद् कन्ठ से कहा "गंगा मैया तुम्हारी जय हो ! जय गंगे रानी ! हर्ष से मेरे नेत्र फूल उठे । हृदय नाचने लगा। मोटी २ झूल ओढ़े झूमते २ बढ़ रहे थे। मैंने उतावली से कहा- सरस्वती ! विजय ! उठो गङ्गा आ गयी। माँ ने कहा रहने दो सर्दी है जरा सो लेने दो, बच्चे हैं। मैंने कहा माँ! मैं तो पैदल चल गा । मैं दौड़ा, वहीं, उस कच्ची धूल और खड्डों से भरी सड़क पर, उसी ऊषा के उज्ज्वल अन्धकार में, उसी मीठी सर्दी की बहार में, उसी शरद की बीतती रात में, मैं ! हाँ मैं आपे से बाहर हो कर, अजी पागल हो कर, बिना जूता बाहर दौड़ा, गाड़ी से आगे, बैलरें से भी तेज़, बहुत तेज़, मानो बैलों के धैर्य से ऊब गया था, उन्हें उत्साह से चलना सिखाने के लिये मैं दौड़ा। बैल उसी तरह स्वाभाविक गति से चल रहे, थे। मैं आगे निकल गया , बहुत दूर आगे निकल गया : गाड़ा उसके पहिये का चूँ चूँ शब्द, बैलों की दाल का टुलुक २ नाद पीछे रह गया । वायु सफेद हो गयो थी और परछाई रंगी गई थी, स्थिरता हिलने लगी थी। गाड़ी पीछे थी, मैं एक पुराने बारा के किनारे एक कुएँ की कोर पर बैठा एक बार गङ्ग
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